Saturday, May 5, 2012

भारत की राष्ट्रीयता (INDIAN NATIONALISM)

भारत शब्द को उसके मूल स्वरूप में व राष्ट्र व राष्ट्रीयता को भी भारत के सन्दर्भ में वर्णित करना इस आलेख का मुख्य प्रयोजन है, अत: भारत की अपनी भाषा व लिपि में इस विषय पर प्रस्तुति से भारतमाता के प्रति अपने कर्त्तव्य की पूर्ति से भारत व उसकी राष्ट्रीयता के प्रति दुराग्रहों का निराकरण भी इस प्रस्तुति का उद्देश्य है | मेरी यह दृढ़ मान्यता है कि यदि हम भारत को INDIA का तथा राष्ट्रीयता को NATIONALISM का पर्याय मानते हैं तो विदेशी शब्दों INDIA और NATIONALISM को भारत व राष्ट्रीयता के मूल अर्थों के दृष्टिकोण से देखना उचित होगा | विदेशी शब्दों के विदेशी अर्थों के रूप में ग्रहण केवल तभी होना चाहिए जब उस शब्द का समानार्थी शब्द अथवा विचार अपनी भाषा में उपलब्ध ही ना हो | इस सन्दर्भ में यहाँ बात स्पष्ट है कि भारत व राष्ट्र शब्द विदेशी समानार्थी शब्दों के आगमन के पूर्व यहाँ विद्यमान थे और यदि शब्द थे तो शब्द का विचार तो होगा ही | गत सहस्त्राब्दी में इस्लामी और ईसाई विस्तारवादी आन्दोलन ने जहाँ अनेकों राष्ट्रों व संस्कृतियों को पददलित किया वहीँ ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने अपनी विजय पताका को चहुँ दिशाओं में फहरा कर एक लोकोक्ति को प्रचलित किया “ब्रिटिश साम्राज्य में कभी सूर्यास्त नहीं होता” | औद्योगीकरण व वैज्ञानिक प्रगति के साथ मानवता पर भीषण अत्याचार के बल पर पश्चिमी जगत ने अपनी दादागिरी को विश्व में स्थापित किया है और भारत इस्लामी- ईसाई व साम्राज्यवादी अत्याचार कि भेंट चढ़ा एक महत्वपूर्ण राष्ट्र है | भारत को कुटिल विदेशी दृष्टि के INDIA के माध्यम से समझने जैसा ही कार्य इतिहास को HISTORY के अनुसार समझने का हुआ है और यहीं से सारी विकृति का प्रारम्भ होता है | भारत व राष्ट्र के ही समान इतिहास भी प्राचीन भारतीय (संस्कृत) शब्द है और यदि शब्द है तो इसके पीछे विचार भी होगा, किन्तु दुर्भाग्य से इतिहास शब्द के पीछे के विचार को तिलांजलि दे हमने इसे HISTORY के अनुसार ढालने का कुकृत्य किया और सहज ही स्वीकार कर लिया कि भारत में इतिहास वृत्ति का सर्वथा अभाव रहा | भारतीयों ने इतिहास लिखा ही नहीं क्योंकि संभवत: भारत का कोई इतिहास है ही नहीं अत: विदेशियों ने जो कुछ INDIA के बारे में लिखा उसे ही हम इतिहास की संज्ञा देंगे, भारतीय संस्कृत साहित्य के अनुसार नहीं | इसी मानसिक परतंत्रता की अपेक्षा की थी फिरंगी मैकाले ने, हम भारतीयों ने उसकी अपेक्षा को निज से अधिक महत्त्व देकर फिरंगियों के प्रति अपनी निष्ठा का प्रमाण दिया है | NATION- STATE के विचार को मान्यता देने वालों से मेरा प्रश्न है कि वे USSR, GERMANY, KORIYA, CHINA की राष्ट्रीयता को कैसे वर्णित करेंगे ? क्या भारत की राष्ट्रीयता अंग्रेजी प्रभाव व सत्तालोभी कांग्रेस के पाकिस्तान सम्बन्धी उस निर्णय से परिवर्तित हो जाती है जिससे भारत के शासन को २ भागों में बाँट, एक भाग मुस्लिम समुदाय को दे दिया गया | १ अथवा २ दिनों में कैसे एक सनातन पुरातन राष्ट्र की राष्ट्रीयता परिवर्तित हो सकती है ? ब्रिटिश शासकों ने भारत में सीधे अपने राज्य की स्थापना के साथ इस सांस्कृतिक नव चेतना की उपेक्षा ही नहीं की, बल्कि इसका प्रतिरोध भी किया। पाश्चात्य देश ने राजनीतिक राष्ट्रवाद को योजनापूर्वक भारतीयों पर लादा। भारत में राष्ट्रवाद के अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं किया। भारत को भविष्य में बनने वाला राष्ट्र कहा। कुछ भारतीय विद्वानों ने भी तत्कालीन भारतीय राष्ट्रवाद की उपेक्षा करते हुए उसे प्रारंभिक राष्ट्रवाद, भ्रूणावस्था में राष्ट्रवाद आदि भ्रमित नाम दिए। अंग्रेजों ने अपने लेखों तथा व्यवहार में हिन्दू तथा हिन्दुस्थान शब्दों के उच्चारण से भी परहेज किया। उन्होंने यहां के प्रमुख समुदायों को मुस्लिम तथा गैर-मुस्लिम कहना शुरू किया तथा दोनों को बांटने का षड्यंत्र रचा। सामान्यत: हिन्दू धर्म को ब्राहृणवाद कहा गया। परस्पर अलगाव व टकराव को प्रोत्साहन दिया। १८८५ में ए.ओ. ह्रूम द्वारा तत्कालीन वायसराय लार्ड डफरिन के आशीर्वाद से अखिल भारतीय कांग्रेस की स्थापना की गई। इसका उद्देश्य ब्रिटिश राज्य की सुरक्षा तथा तत्काल बढ़ते राष्ट्रवाद को नष्ट करना था। सामान्य कांग्रेस के सदस्यों ने पश्चिमी राष्ट्रवाद के प्रति पूर्ण आस्था तथा संवैधानिक मार्ग से कुछ सुविधाओं को प्राप्त करने का अपना लक्ष्य बनाया। उन्होंने स्वीकार किया कि भारत कोई राष्ट्र नहीं है। एक नेता सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने अपनी आत्मकथा का नाम ही "A Nation in the Making रख दिया इस काल में गणपति तथा शिवाजी उत्सवों के अतिरिक्त हिन्दी भाषा, गोरक्षा, गीता, रामायण, रक्षाबंधन, दुर्गापूजा, वन्दे मातरम् के साथ भारत माता की जय के द्वारा राष्ट्रीय जागरण एवं प्रेरणा के स्वर भी सुनाई दिये। परन्तु यह भी सत्य है, जैसा विश्व प्रसिद्ध विद्वान नीरद चौधरी ने लिखा, कि तिलक की मृत्यु (१९२०) के साथ कांग्रेस का यह सांस्कृतिक एजेण्डा समाप्त हो गया। परिणामस्वरूप कालान्तर में अनेक ने कांग्रेस छोड़ दी। उदाहरणत: मध्य भारत कांग्रेस के मंत्री डा. केशवराव बलिराम हेडगेवार ने १९२५ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। महर्षि अरविन्द ने पांडिचेरी आश्रम को स्थायी रूप से अपनी साधना-स्थली बना लिया। सुभाष चन्द्र बोस को कांग्रेस छोड़नी पड़ी। हिन्दू महासभा का आविर्भाव भी कांग्रेस में सांस्कृतिक आधार का अभाव होना था। वस्तुत: भारतीय क्रांतिकारियों ने सांस्कृतिक धारा का प्रतिनिधित्व किया तथा इसे भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन का आधार बनाया। १८५७ से १९४७ तक इस निमित्त संघर्ष तथा बलिदान की परम्परा अबाध गति से चलती रही। कूका आन्दोलन की गूंज तथा बासुदेब बलवन्त फड़के का बलिदान भारत के क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गया। चाफेकर बन्धुओं ने हिन्दू धर्म संरक्षिणी बनाई तथा शिवाजी उत्सव पर कहा, "चुप मत बैठो, बेकार पृथ्वी पर बोझ मत बनो, हमारे देश का नाम तो हिन्दुस्थान है, यहां अंग्रेज क्यों राज्य कर रहे हैं?" विनायक दामोदर सावरकर भारत के इतिहास में पहले ऐसे क्रांतिकारी थे जिन्होंने विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने १८५७ के "विद्रोह" को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा, समाज में हिन्दुत्व का भाव जागृत किया तथा अखण्ड भारत का घोष किया। बंगाल, पंजाब, दिल्ली में अनेक क्रांतिकारियों ने संघर्षों में भाग लिया। अमरीका में लाला हरदयाल तथा उनके साथियों ने भारतीय संस्कृति का गुणगान करते हुए गदर पार्टी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारत में इसके विस्तार के अनेक प्रयत्न हुए। इंग्लैण्ड में मदनलाल धींगरा ने अपनी फांसी के पूर्व जो वक्तव्य दिया वह भारत की स्वतंत्रता के लिए सांस्कृतिक गान ही तो था। क्रांतिकारियों का संस्कृति प्रेरित यह सन्देश फ्रांस, जर्मनी तथा रूस तक फैला था। दिल्ली का बमकाण्ड, काकोरी षड्यंत्र, आजाद, भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के बलिदान इसी सांस्कृतिक प्रेरणा के दिव्य प्रसंग हैं। संक्षेप में देश के अनेक नवयुवकों ने राष्ट्र यज्ञ में आहुतियां देकर, गीता पर हाथ रखकर, पुनर्जन्म की कामना कर गौरवमयी अतीत का यशोगान कर अपने प्राणों का बलिदान दिया। वन्देमातरम् इस देश की संस्कृति एवं राष्ट्रीयता का जयघोष बना। भारतीय इतिहास बोध के प्रमाण विश्व के प्राचीनतम ज्ञान अभिलेख ऋग्वेद में हैं। ऋग्वेद का नासदीय सूक्त सुदूर अतीत (इतिहास) जानने की गहनतम जिज्ञासा है। वैदिक साहित्य में गाथा, नाराशंसी, आख्यान, आख्यिका आदि के उल्लेख हैं। अथर्ववेद (१२.६.११) में सीधे इतिहास शब्द का ही प्रयोग हुआ है, तमितिहासश्च पुराणं च गाथाश्च, नाराशंसीश्चानुव्य चलन्। छान्दोग्य उपनिषद् में नारद ने सनत कुमार को स्वयं द्वारा पढ़े गए विषयों में इतिहास को भी शामिल किया है। यास्क ने नाराशंसी को व्यक्ति की प्रशंसा वाले मन्त्र बताया है। मोनियर विलयम ने आख्यान को प्राचीन काल में घटित घटना से जुड़ा सम्वाद बताया है। ऐतरेय ब्राह्मण (३.२५.१) में ‘आख्यानविद्’ का उल्लेख है। उत्तरवैदिक काल में रचे गए बा्रह्मण ग्रन्थों-शतपथ, जैमिनीय और गोपथ में ‘इतिहास’ शब्द का प्रयोग हुआ है। पुराणों में वर्णन विश्लेषण का विस्तार है, पार्जीटर ने इन्हें इतिहास की सामग्री से भरापूरा बताया है। कौटिल्य ने विश्वविख्यात ग्रन्थ ‘अर्थशास्त्र’ में पुराण, इतिवृत्त, आख्यिका, उदाहरण, धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र को इतिहास बताया है- पुराणमितिवृतमारिव्यको दाहरणं धर्मशास्त्रमर्थशास्त्रं चेतिहासः। ऋग्वेद से लेकर समूचे वैदिक साहित्य, पुराण, रामायण व महाभारत तक प्राचीन भारतीय इतिहास का विस्तार है। ऋग्वेद के ऋषि किसी नूतन पथ की स्थापना नहीं करते। ऋषि प्राचीन परम्परा को ही आगे बढ़ाते हैं। इस परम्परा का मूल तत्व है ऋग्वेद में आया शब्द ‘ऋत’। ऋत जैसा अर्थ देने वाला शब्द दुनिया की किसी भाषा में नहीं है। पश्चिमी दर्शन और विचार सारिणी में आए `Lax Naturale’ और ‘Archetype’ शब्द ऋत के करीबी हैं लेकिन ऋत नहीं है। ऋत ब्रह्माण्डीय संविधान है। यही दैव है, दैवीय है, अणिमा (Micro), महिमा और दिव्यता भी है। ऋग्वेद (१०.१९०) में प्राचीन इतिहास का आदि बिन्दु है। ऋषि सृष्टि सर्जन के क्षण से पृथ्वी की निर्मिति तक का इतिहास बताते हैं ऊष्मा से ऋत सत्य की उत्पत्ति हुई। घोर अंधकार, फिर समुद्र फिर संवत्सर और दिन रात सूर्य चन्द्र और पृथ्वी अंतरिक्ष बने। ऋत सत्य एक ही है। मुण्डकोपनिषद् में सत्यमेव जयते नानृतम् मन्त्र है। ‘नानृतम्’ वस्तुतः न अन् ऋतम् है। जो ऋत नहीं है, वही ‘अनृत’ है, झूठ है। ऋत, सत्य और धर्म भी एक ही है। भारतीय इतिहास बोध में राष्ट्र का गौरवबोध है, ऋत सत्य का आत्मबोध भी है। गांधी जी के चित्त में इतिहास की ऐसी ही निष्ठा थी। लेकिन यूरोपीय तर्ज के इतिहास में ऋत सत्य के विपरीत कलह और कोलाहल को ही प्रमुख महत्व मिलता है। उन्होंने लिखा जब इस दया की, प्रेम की और सत्य की धारा रुकती है, टूटती है, तभी इतिहास में वह लिखा जाता है। एक कुटुम्ब के दो भाई लड़े। इसमें एक ने दूसरे के खिलाफ सत्याग्रह का बल काम में लिया। दोनों फिर से मिल-जुलकर रहने लगे। अम्बानी बंधु लड़ते हैं, मुकदमेंबाजी करते हैं। Print और Electronic Media के हीरो बन जाते हैं। यूरोपीय तर्ज की इतिहास शैली राजाओं की वंशावली बनाती है। युध्दों को विशेष महत्व देती है। सिंकदर कोई बड़ा राजा नहीं था, न वीर था, न पराक्रमी था लेकिन इतिहासकारों ने उसे महानायक और ‘The Great’ बनाया। ब्रिटेन का इतिहास राजाओं का इतिहास है। इस इतिहास को विशेषज्ञ ही जान पाते हैं। भारत का इतिहास लोकस्मृति में है। राजा हरिश्चन्द्र भारत के गांव गली तक अपनी सत्यनिष्ठा के लिए चर्चित हैं। राम भी राजा थे। भारत के अशिक्षित भी ‘रामराज्य’ के प्रशंसक है। गांधी जी रामराज्य का स्वप्न देखते थे। यूरोपीय इतिहास में राजा राम, राजा हरिश्चन्द्र, धु्रव, प्रहलाद या लोकमन में घट घट व्याप्त श्रीकृष्ण जैसे इतिहास नायक नहीं है। बेशक ख्यातिनाम लोग यूरोप में भी हैं पर लोकमन और लोकस्मृति में इतिहास संजोने का भारतीय इतिहास का अंदाज निराला है। यूरोपीय इतिहासकार और उनके पिछलग्गू कतिपय भारतीय विद्वान आर्यों को विदेशी बताते है। विश्वविद्यालय यही कचरा इतिहास पढ़ा रहे हैं लेकिन भारत की श्रुति, स्मृति, गीत, गाथा, आख्यिका और लोककथाओं में आर्य विदेशी नहीं है। सो कोई भी भारतीय आर्यो को विदेशी नहीं मानता, नहीं जानता। यूरोपीय इतिहास शैली अस्वाभाविक है। गांधी जी ने ‘हिन्द स्वराज’ में ठीक लिखा हिस्ट्री अस्वाभाविक बातों को दर्ज करती है। वास्तव में भारतीय मनीषा में राष्ट्र व राज्य के स्पष्ट अंतर से पश्चिमी देशों का समाज हतप्रभ व अचंभित था, वहाँ वैसी स्थिति के अभाव में NATION-STATE के विचार का विकास हुआ तथा NATION को STATE से अभिन्न मानने की व्यवस्था का सूत्रपात हुआ | यद्यपि भरतखण्ड, भारत, भारतवर्ष आदि नामों से इस राष्ट्र की सत्ता का दर्शन संस्कृत वांग्मय में प्रचुरता से मिलता है- “उत्तरम् यत् समुद्रस्य, हिमाद्रेश्चैव दक्षिणं | वर्षं तद भारतं नाम भारती यत्र संतति:” || (विष्णुपुराण) महाभारत नामक महाग्रंथ के शांतिपर्व में भीष्म पितामह द्वारा उस स्थिति का वर्णन है जब यह राष्ट्र राज्यरहित था क्योंकि सभी स्वधर्म का पालन करते थे | राज्य की आवश्यकता इस धर्म का ह्रास होने के कारण पड़ी | भारत की राष्ट्रीय परम्परा जहाँ अनादिकाल से विद्यमान रही, पश्चिमी राज्यों में वैसी परम्परा का सर्वथा अभाव था | भारत के इतिहासज्ञ चाहे वेदों को गडरियों के गीत कहें अथवा मिथ्या कपोल-कल्पनाएँ, एक बात तो विश्व समुदाय स्वीकार करता है कि `वेद’ मानव जाति की सर्वप्रथम रचना हैं और वेदों में भी ऋग्वेद विश्व की सबसे पहली कृति है | वेदों की रचना के कालनिर्धारण की चिंता भारतीयों ने नहीं की, वरन ईसाई विश्वास के पूर्वाग्रह से ग्रस्त पश्चिमी विद्वानों ने ६००० वर्षों में समस्त विश्व के इतिहास को समेट लेने के पूर्वाग्रह से वेदादि संपूर्ण भारतीय संस्कृत साहित्य की रचना के काल का निर्धारण किया | चरों वेदों में राष्ट्र सम्बन्धी भारतीय अवधारणा के प्रमाण यत्र तत्र सर्वत्र मिलते हैं | “वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिता:” (ऋग्वेद १.२३), “माता भूमि: पुत्रोऽयं पृथ्विया:” (अथववेद १२.१.१२), “आ ब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतामा राष्ट्रे राजन्य: शूर इषव्योऽतिव्याधीमहारथो जायतां दोग्ध्री धेनुर्वोढानड्वानाशु: सप्ति: पुरन्धिर्योषा: जिष्णू रथेष्ठा: सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतो निकामे-निकामे न: पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो न ओषधय: पच्यन्तां योगक्षेमो न: कल्पताम्” (यजुर्वेद २२.२२) आदि अनेकों वेदवचन वैदिक् ऋषियों की राष्ट्र अवधारणा को स्पष्ट करते हैं। एक ऐसा राष्ट्र जिसका विचार वैश्विक है, विशाल है, विस्तृत है जो समस्त पृथ्वी, समष्टि के कल्याण की कामना करता है। अथर्ववेद का भूमिसूक्त तो पृथ्वी को ही समर्पित है। मन्त्र (१२.१.१२) है: ‘यत् ते मधयं पृथिवि यच्च नभ्यं, यास्ते ऊर्जस्तन्व: संबभूवु:, तासु नो धे”यभि न: पवस्व, माता भूमि: पुत्रेहं पृथिव्या:, पर्जन्य: पिता स उ न: पिपर्तु।’ यानी हे पृथ्वी, यह जो तुम्हारा मध्यभाग है और जो उभरा हुआ ऊधर्वभाग है, ये जो तुम्हारे शरीर के विभिन्न अंग ऊर्जा से भरे हैं, हे पृथ्वी मां, तुम मुझे अपने उसी शरीर में संजो लो और दुलारो कि मैं तो तुम्हारे पुत्र के जैसा हूं, तुम मेरी मां हो और पर्जन्य का हम पर पिता के जैसा साया बना रहे। इस तरह के संवेदना से भरे उद्गारों को पढ़ते जाइए तो लगता है कि कवि को यह भूमि पहाड़ों और नदियों का मात्र कोई भौगोलिक पिंड नजर नहीं आ रही, बल्कि उसने पृथ्वी से अपना खून का रिश्ता जोड़ लिया है, क्योंकि भूमि ने उसे इतना कुछ दिया है, पाल-पोस कर बड़ा कर दिया है। एक मन्त्र (१२.१.१६) क्यों न पढ़ लिया जाए, जिसमें कवि पृथ्वी के प्रति इसलिए कृतज्ञता से भरा है, क्योंकि अपने भीतर समाए धन और अपनी छाती पर उगे धान्य से उसने कवि को समृद्ध कर दिया है, रईस बना दिया है: ‘विश्वंभरा वसुधानी प्रतिष्ठा, हिरण्यवक्षा जगतो निवेशनी, वैश्वानरं बिभ्रती भूमिरग्निम् इन्द्र ऋषभा द्रविंण नो दधातु’ अर्थात् पूरी दुनिया का भरण-पोषण करने वाली यह पृथ्वी वसु (धन) की खानें अपने में धारण किए है, इसकी छाती (वक्ष) सोने की है, सारा जगत उसमें समाया है, सारे संसार की भूख यह मिटाती है, हमारी कामना है कि यह हमें समृद्धि में नहलाए रखे। खेतों और खानों से मिलने वाली समृद्धि से अभिभूत कवि इस बात से भी चकाचौंध है कि कैसे इस भूमि पर दिन-रात पानी की प्रभूत धाराएं बिना किसी प्रमाद के लगातार बहती रह कर उसे वर्चस्व से सम्पन्न कर रही हैं (१२.१.१९)- यस्यामाप: परिचरा समानी: अहोरात्रे अप्रमादं क्षरन्ति, सा नो भूमिर्भूरिधारा पयोदुहा अथो उक्षतु वर्चसा। सूक्त में ऋषि ने सचमुच भूमि के साथ मां का नाता जोड़ लिया है और उससे वैसे ही दूध की कामना कर रहा है जैसे कोई शिशु अपनी मां से दूध की कामना करता है- सा नो भूमिर्विसृजतां माता पुत्रय मे पय: (१२.१.१०), यानी यह भूमि मेरे लिए वैसे ही दूध (पय:) की धारा प्रवाहित करे, जैसे मां अपने बेटे के लिए करती है। पर वह भूमि मां है कैसी? कवि उसकी दिव्यता से अभिभूत है और कल्पना करता है, उसी मन्त्र में कि यह वह पृथ्वी है, जिस पर अश्विनी कुमारों ने अपना रथ चलाया था, जिसे विष्णु ने अपने कदमों से लांघा था, जिसे इन्द्र ने अपने लिए शत्रुविहीन कर दिया था, वह मेरी मां मेरे लिए अपने शिशु की तरह दूध प्रवाहित करे। कवि चाहता तो पृथ्वी को अन्न देने वाली कह कर रुक जाता, पर उसने उसमें मां के दर्शन किए, उसमें दिव्यता के दर्शन किए और उसे अपने और पूर्वजों के इतिहास से भी जोड़ दिया। मन्त्र संख्या (१२.१.२४) में कवि ने एक बड़ी ही मजेदार बात कही है कि भूमि की गंध को सूर्या के विवाह में भी बिखेरा गया। (यस्ते गंध: पुष्करमाविवेश यं संजभ्रु: सूर्याया विवाहे) अगली ही गाथा में हम देखेंगे कि कैसे सूर्या का विवाह हमारे राम परवर्ती और महाभारत पूर्ववर्ती इतिहास की अद्भुत सामाजिक घटना थी जो या तो ‘भूमिसूक्त’ के समकालीन थी या फिर थोड़ा ही पहले घटी थी। मन्त्र संख्या (१२.१.३८) में कवि ने पृथ्वी पर होने वाले यज्ञों की बात कही है तो इस बात को भी रिकार्ड कर दिया है कि इन यज्ञों में विद्वान लोग ऋचाओं, यजुषों व सोमों से हवि डालते हैं और यही वह पृथ्वी है, जहां भूतकाल में ऋषियों ने अनेक प्रकार का काव्य लिखा है- ‘यस्यां पूर्वे भूतकृत ऋषयो मा उदानृचु:’ (१२.१.३९) पृथ्वी को देख कर कवि इस कदर मुखर हो गया है कि वह सब कुछ लिख देना चाहता है, जो भी उसे पृथ्वी पर नजर आता है या वह उसके बारे में सोचता है। फटाफट एक विहंगावलोकन कर लिया जाए। इसी पृथ्वी पर समुद्र हैं, नदियां हैं और जल (यस्या समुद्रं उत सिंधुरापो: १२.१.३)। इसी पृथ्वी पर पत्थरों और हिम वाले पहाड़ हैं और जंगल फैले हैं (गिरयस्ते पर्वता हिमवन्तोरण्यं ते १२.१.११) इसी जमीन पर मनुष्य और पशु विचरण करते हैं (मर्त्यास्त्वं बिभर्षि द्विपदश्चतुष्पद: १२.१.१२)। यही भूमि तमाम औषधियों की जननी है (विश्वस्वं मातरमोषधीनां १२.१.१७) जिसकी गंध को गंधर्व और अप्सराएं सूंघते नहीं अघाते (यं गंधर्वा अप्सरसश्च भेजिरे तेन या सुरभि कृपु: १२.१.२३) इसी पर सभी वृक्ष और वनस्पतियां अपनी जड़े टिकाए हैं (यस्यां वृक्षा वानस्पत्या ध्रुवास्तिष्ठन्ति १२.१.२७) और इसी पर हैं शिलाएं, पत्थर और मिट्टी (शिला भूमिरश्मा पांसु: सा भूमि: संध्रता धृता: १२.१.२६) पर इसी भूमि को, भूमि मां को अपने फायदों के लिए खोदना पड़ता है तो कारुणिक कवि प्रार्थना करता है कि वह तो करना ही पड़ेगा, पर हे भूमि, उससे तुम्हारे मर्मस्थलों और हृदय को पीड़ा न पहुंचे-यत् ते भूमे विखनामि क्षिप्रां तदपि रोहतु मा ते मर्म विमृग्वरि (१२.१.३५)। कवि के उद्गारों की तीव्रता, अनुभूति और अभिव्यक्ति इन दोनों स्तरों की तीव्रता देखकर तो लगता है कि वह अपने भूमि वर्णन में कभी रूकेगा ही नहीं। पर ऐसा चूंकि संभव नहीं था, इसलिए ६३ मन्त्रों का लम्बा, रंगबिरंगा और भावप्रवण सूक्त लिख कर कवि थम जाता है। पर ६३ मन्त्रों के इस बृहत्तर सूक्त में कम से कम तीन स्थानों पर सूक्तकार ने उस सत्य को खोजने का प्रयास किया है, जिसके कारण यह भूमि टिकी है और जिस कारण वह इसमें मां के दर्शन कर रहा है। सूक्त के पहले ही मन्त्र (१२.१.१) में वह कहता है कि सत्य, दीक्षा, तप, ब्रह्म और यज्ञ ने इस पृथ्वी को टिका रखा है- सत्यं बृहदुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञ: पृथिवीं धारयन्ति। आठवें मन्त्र में कवि फिर कहता है कि पृथ्वी का हृदय सत्य से ओतप्रोत है- यस्या हृदयं परमे व्योमन् सत्येनावृतं अमृतं पृथिव्या:। मन्त्र (१२.१.१७) में कवि कहता है कि इस पृथ्वी को धर्म ने धारण कर रखा है- भूमिं पृथिवीं धर्मणा धृताम्। भूमि (पृथ्वी) के प्रति भारतीय ऋषि के यह उद्गार अनायास ही नहीं हैं, इसमें निहित है अपनी मातृभूमि- पितृभूमि- पुण्यभूमि (राष्ट्र) के प्रति अगाध श्रद्धा | धर्म की अवधारणा स्मृति ग्रन्थों का मूल है, ब्राह्मण ग्रन्थ, पौराणिक साहित्य, रामायण, महाभारत काव्य सभी धर्म की श्रुति- स्मृति की अवधारणा का अनुपालन करते हैं। पौराणिक साहित्य में तो भारतभूमि की प्रशंसा करते हुए, देवताओं द्वारा इस पुण्य भूमि पर जन्म लेने की इच्छा का वर्णन करता है तथा भारतभूमि की भौगोलिक स्थिति का वर्णन करते हुए यहां के पर्वत- वन- नदियां- सरोवर आदि के विस्तार का वर्णन करता है जिससे पौराणिक काल में भारत नामक राष्ट्र की स्थिति स्पष्ट होती है। भारत की ४ दिशाओं में स्थित ४ धाम, ७ पुरियां, द्वादश ज्योतिर्लिंग, ५१ शक्तिपीठ आदि भारत के सांस्कितिक ऐक्य के परिचायक हैं। इसी एकता को आद्य शंकराचार्य ने भारत की ४ दिशाओं में ४ शाड़्करपीठों की स्थापना कर और पुष्ट किया। भारतीय राष्ट्रीयता को समझने के लिए राष्ट्र को राज्य से पृथक करके देखना होगा तथा भारत के अपने साहित्य का अवलोकन करना होगा। भारत में अनेकों राज्यों की स्थिति उसके सांस्क्रितिक् राष्ट्रवाद को कहीं भी बाधित नहीं करती है। बाधा है तो मात्र विश्व को अपने ढंग से चलाने वालों की धारणा की तथा उससे भी अधिक पश्चिमी विचार को सर्वथा श्रेष्ठ मान कर अनुकरण करने वाले भारतीयों की। अपने राष्ट्र व समाज के विषय में हमें अपनी भाषा में अपने साहित्य को आदर्श मान कर विचार करना अपरिहार्य है। छायावाद के प्रसिद्ध कवि महाप्राण निराला का भारतभूमि के प्रति समर्पण इसी राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति है- || भारत ही जीवन वान ज्योतिर्मय परम रमण सर- सरिता – वन- उपवन || निराला की ही ये पंक्तियां भारत कि भौगोलिक स्थिति का चित्रण करती हैं- || वंदु तव पद कमाल चिर सेवित चरण युगल, मुकुट शुभ्र हिमागार हृदय बीचविमल हार पञ्च सिंधु ब्रह्मपुत्र रवि तनया गंगा विन्ध्य विपिन राजे घन चेरि युगल जंघा || जयशंकर प्रसाद के “चन्द्रगुप्त” नाटक का प्रसिद्द गीत || अरुण यह मधुमय देश हमारा || किसे भारतवर्ष के प्रति भावविह्वल नहीं करता ? राष्ट्रीयता का एक पक्ष है अतीत की स्मृति | अतीत की स्मृति आत्मस्मृति है, यही आत्मस्मृति जीवन है और आत्मविस्मृति मरण | मैथिलीशरण गुप्त की रचना साकेत, जयशंकर प्रसाद की कामायनी, निराला की यमुना के प्रति, राम की शक्तिपूजा, दिनकर की रश्मिरथी यही आत्मस्मृति है.........क्या इसे इतिहास नहीं कहा जा सकता ? और इसके पश्चात् जयशंकर प्रसाद के चन्द्रगुप्त और स्कन्दगुप्त नाटक में अतीत को
वर्त्तमान के लिए प्रेरणास्पद कैसे बनाया- || वही है रक्त वही है देह वही साहस वैसा ही ज्ञान, वही है शांति वही है शक्ति वही हम दिव्य आर्य सन्तान जियें तो सदा उसी के लिए वही अभिमान रहे यह हर्ष, निछावर कर दें हम सर्वस्व हमारा प्यारा भारतवर्ष || अपनी संस्कृति के प्रति गौरवबोध वस्तुत: राष्ट्रीय अस्मिता का भाग है और यही राष्ट्रीय अस्मिता राष्ट्रबोध का अभिन्न अंग | निज संस्कृति के प्रति विस्मरण का भाव देखकर रचनाकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी पश्चिम के अनुकरण पर क्षोभ व्यक्त करते हुए कहते हैं- हममें अपनी समृद्ध विरासत के प्रति न तो किसी प्रकार का प्रेम बच रहने के लक्षण दिखते हैं ना ही ममता का भाव | जिस दिन हम अपने गौरवशाली अतीत को निज के साथ जोड़ेंगे उस दिन हमारा भविष्य स्वर्णिम होकर प्रकट होगा | साम्यवादी विचारधारा पर प्रहार करते हुए अज्ञेय कहते हैं- “मैं जानता हूँ कि ऐसा भी होता है कि कुछ लोग अपने को देश से कटा हुआ स्वीकार कर कहते हैं कि हम तो विश्व के नागरिक हैं, पर यहाँ मात्र दिलासा ही है, स्वराष्ट्र से कट कर विश्व नागरिकता नहीं मिलती, स्वदेश से एकात्म होकर उसकी सीमा के अतिक्रमण करने से मिलती है | इस प्रकार भारत कि अपनी भाषा से एकाकार साहित्य भारतीय संस्कृति व राष्ट्रीयता का पूर्ण श्रद्धा व प्रतिबद्धता से अनुकरण करता है व स्थापित करता है भारत की राष्ट्रीयता का यथार्थ | राष्ट्रीयता सम्बन्धी प्रभावी विचारकों में HANS KOHN नामक यहूदी अमरीकी विद्वान का विचार ध्यातव्य हैं- “राष्ट्रीयता के सम्बन्ध में राज्य नहीं समान भूक्षेत्र महत्वपूर्ण है” । अमरीकी लेखक Andrew Zimmern राष्ट्रीयता को विषयनिष्ठ मानते हैं, जबकि राज्य को वस्तुनिष्ठ; उनके अनुसार राष्ट्रीयता मनोवैज्ञानिक व्यवस्था है जबकि शासन राजनैतिक प्रबन्ध; राष्ट्रीयता मन की एक अवस्था है तथा शासन विधि का एक स्वरूप; राष्ट्रीयता का सम्बन्ध आत्मा से है जबकि राज्य व्यवस्था एक स्वीकार्यता; राष्ट्रीयता अनुभवजन्य- वैचारिक व नैष्ठिक है तथा राज्य व्यवस्था एक औपचारिक तन्त्र | किसी विदेशी के कथन से प्रेरणा लेकर करें अथवा स्वस्फूर्त मनीषा के बल पर, एक बात को हमें स्वीकार करना ही होगा कि राष्ट्र व राज्य पृथक हैं | राज्य राष्ट्र का उपकरण है किन्तु स्वयं में राष्ट्र नहीं | UNION OF STATES राष्ट्र नहीं हो सकता क्योंकि वह UNION बलात भी हो सकती है स्वार्थवश भी, जबकि राष्ट्र के विभिन्न घटकों का संबंध आत्मिक है, स्वैच्छिक है, सांस्कृतिक है, नि:स्वार्थ है | उत्तर भारत के भारतवंशी के लिए दक्षिण के सेतुबंध रामेश्वरम के प्रति, पूर्व के जगन्नाथपुरी के प्रति व पश्चिम के द्वारिका के प्रति उतनी ही श्रद्धा है जितनी उत्तर भारत के हिमालय क्षेत्र स्थित बद्रीनाथ धाम के प्रति है और यह श्रद्धा १५ अगस्त १९४७ के पश्चात् नहीं निर्मित हुई है जब खण्डित भारत को UNION OF STATES का नाम देकर उसे NATION IN MAKING कहा गया वरन सहस्त्रों वर्षों से अविछिन्न रूप से विद्यमान है | ये सभी स्थान भारत राष्ट्र का भाग रहे हैं (एक सांस्कृतिक राष्ट्र भारत के) | कुटिल फिरंगी के भारत को सतत निर्बल व तेजहीन बनाने के षडयंत्र को पहचान जिस दिन हम वास्तविकता के धरातल से निज भाषा के माध्यम से राष्ट्र व राष्ट्रीयता के विषय पर दृष्टिपात करेंगे, हमारे समस्त पूर्वाग्रह व भ्रम स्वत: ही नष्ट हो जाएँगे व उस उर्वरा भूमि से उद्भव होगा स्वर्णिम भारत के युग का, जिसके कारण भारत को सोने की चिड़िया कहा गया | वह दिन शीघ्र आए, ऐसी कामना है, वन्देमातरम् ! डॉ. जय प्रकाश गुप्त चिकित्सक राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, अम्बाला छावनी । ईमेल- chikitsak@rediffmail.com Mob- 9315510425

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