Thursday, July 11, 2024

श्वान से DOG/BITCH तक

अभी गत सप्ताह एक अंग्रेजी के समाचार-पत्र (The Hindustan Times) में केरल में Stray Dogs को मारने की योजना का समाचार पढ़ा, कुछ लोगों को काट खाया होगा...अत: प्रशासन ने उन्हें मारने का मन बनाया ! एक ओर पश्चिमी विकृतियों को अपनाते हुए भारतीयों ने गो-पालन छोड़ कुत्ता-बिल्ली पालन में अत्यन्त विकास किया है (विशेषकर कुत्तों की विदेशी प्रजातियों का), वहीँ देशी कुत्तों को मारने की सीमा तह तिरस्कृत करने का गौरव प्राप्त किया है ! पश्चिम से महिलाओं के प्रति सहिष्णु व सम्मान-जनक शब्दों के शब्दकोष में BLOODY BITCH शब्द का समावेश भारतीय सम्भ्रान्त वर्ग में हुआ है ! भारतीय सिनेमा की मरुभूमि मुम्बई का नाम Hollywood जैसा ही BOLLYWOOD करके भारतीय चल-चित्र जगत (विशेषकर हिन्दी सिनेमा) ने विकास के ऊंचे आयामों को छुआ और गरियाने की भाषा में कुत्ते शब्द अनायास ही जुड़ गया ! इसके विपरीत भारतीय परम्परा में यद्यपि हमने कुत्ते को घर में प्रवेश नहीं दिया किन्तु कुत्ते को मारने का नहीं वरन उसके लिए ग्रास निकाल कर उसके भोजन की भी व्यवस्था की "गाय- कुत्ते कोव्वे का ग्रास निकालने की अपनी परम्परा रही है" ! हमें बताया गया कि कुत्ता स्वामी-भक्त है FAITHFUL है, भारतीय फिल्मों में कुत्ते की वीरता के दृश्य प्रस्तुत किये गए हैं किन्तु यह वास्तविकता के विपरीत है ! चोर लुटेरों डाकुओं के कृत्यों में कुत्ते कभी कोई प्रभावशाली व्यवधान नहीं कर सके, क्योंकि वो उनके लिए भोजन का प्रबन्ध किए रहते हैं ! कुत्ते द्वारा प्यार दर्शाने के चिह्नों को उसकी स्वामिभक्ति का लक्षण कहना हो तो ठीक है क्योंकि "पूंछ हिलाना, पेट दिखाना, भूमि पर लोटपोट होकर अपने स्वामी को रिझाना ये स्वभाव है श्वान का" " लांगूलचालनमधाश्चरणावपातं भूमौ निपत्य वदनोदरदर्शनं च " ऋग्वेद में देवशुनी सरमा नाम की कुतिया को गाय चुराने वाले पणियों का रहस्य लेने देवगुरु बृहस्पति ने भेजा क्योंकि पणियों ने देवराज इन्द्र की गायें चुरा ली थीं ! पणियों ने सरमा को दूध पिलाया और सरमा उन्हीं की हो गई, जब वह लौट कर आई तो देवगुरु बृहस्पति ने उसे स्वर्ग से निष्कासित कर दिया और उसके पश्चात् सरमा के वंशजों को गृह-कक्ष से बाहर रखा गया है ! कहा जाता है कि सरमा के २ पिल्लों को यमदेवता अपने द्वार पर रखते हैं, भीतर नहीं आने देते, इनमें एक श्याम-वर्ण का है दूसरा चितकबरा ! वैदिक अग्निहोत्री भोजन से पूर्व इन दोनों के लिए ग्रास अवश्य निकलते हैं ! वैदिक साहित्य में एक हीं ब्राह्मण का कथानक है जिसने अपने ३ पुत्रों का नाम कुत्ते की जाति पर रखा- शुन:शेप, शुन:पुच्छ और शुन:लांगूल ! दूसरे और तीसरे का अर्थ कुत्ते की पूँछ व पहले का कुत्ते की कामेन्द्रिय है, इनमें से प्रथम शुन:शेप राजा हरिश्चंद्र के यज्ञ का ऋगवैदिक ऋषि है ! यमदेवता के दूत जब पृथ्वी पर किसी के प्राण लेने आते हैं तो कुत्ते उन्हें देख पाने में समर्थ होते हैं और अपने विशेष क्रन्दन से मृत्युदूत की उपस्थिति का संकेत देते हैं, ऐसी मान्यता रही है ! ऐसा ही गीदड़ के विषय में कहा गया, गीदड़ों के क्रन्दन को विनाश के आगमन का सूचक मना गया ! रूद्र का संदेशवाहक होने से गीदड़ी को शिवा अथवा शिवदूती भी कहा गया ! कदाचित इसी कारण महाभारत के युधिष्ठिर जो यम के ही अंशावतार हैं स्वर्गारोहण के समय अपने कुत्ते को स्वर्ग के भीतर ले जाना चाहते हैं ! वैष्णव देवालयों में अथवा यज्ञानुष्ठान में कुत्ते का प्रवेश निषिद्ध रहा किन्तु शिवालयों में नहीं ! Stray Dogs को भारत में चाटुकारिता नहीं करनी पड़ी क्योंकि गृह द्वार पर उपस्थित होते ही उसके भाग का ग्रास उसे मिल गया ! विष्ठाहारी, मांसाहारी कुत्ते को घर के बाहर तक वर्जित कर दिया गया ! कुत्ते की चाटुकारिता के विषय में भी आचार्यों ने अपनी आजीविका के लिए श्वान-वृत्ति अपनाने से मना किया- "न श्ववृत्त्त्या कदाचन" भक्षण के विषय में अविवेकी कहते हुए कहा गया कि कुत्ता सुखी हड्डी चबाते अपने तालू से निकले रक्त का आस्वादन करता आत्महन्ता तक बन जाता है ! मुगियों को एक कारण से यमलोक पहुँचाना, कुत्तों को दुसरे कारण से व मनुष्यों (काफिरों/Pagans) को तीसरे कारण से जीवन-मुक्त करना ये उन्मुक्त प्रचलन है अ-भारतीय संस्कार-युक्त समाज में.....भारतीय संस्कार तो "धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो" का सन्देश प्रसारित करता सर्वे सन्तु निरामया की भी कामना करता है अत: किसी के प्राण लेने का तो प्रश्न ही नहीं ! https://scontent.fixc8-1.fna.fbcdn.net/v/t31.18172-8/11143426_10204600311748044_1389190137478540711_o.jpg?_nc_cat=102&ccb=1-7&_nc_sid=348c05&_nc_ohc=qRsxLj1pp0AQ7kNvgGky05F&_nc_ht=scontent.fixc8-1.fna&oh=00_AYDKzuhYxEIyPRHKZh89T3hiXskQRHVrM5uX8RNwnCn2Cw&oe=66B8336C

Saturday, May 5, 2012

भारत की राष्ट्रीयता (INDIAN NATIONALISM)

भारत शब्द को उसके मूल स्वरूप में व राष्ट्र व राष्ट्रीयता को भी भारत के सन्दर्भ में वर्णित करना इस आलेख का मुख्य प्रयोजन है, अत: भारत की अपनी भाषा व लिपि में इस विषय पर प्रस्तुति से भारतमाता के प्रति अपने कर्त्तव्य की पूर्ति से भारत व उसकी राष्ट्रीयता के प्रति दुराग्रहों का निराकरण भी इस प्रस्तुति का उद्देश्य है | मेरी यह दृढ़ मान्यता है कि यदि हम भारत को INDIA का तथा राष्ट्रीयता को NATIONALISM का पर्याय मानते हैं तो विदेशी शब्दों INDIA और NATIONALISM को भारत व राष्ट्रीयता के मूल अर्थों के दृष्टिकोण से देखना उचित होगा | विदेशी शब्दों के विदेशी अर्थों के रूप में ग्रहण केवल तभी होना चाहिए जब उस शब्द का समानार्थी शब्द अथवा विचार अपनी भाषा में उपलब्ध ही ना हो | इस सन्दर्भ में यहाँ बात स्पष्ट है कि भारत व राष्ट्र शब्द विदेशी समानार्थी शब्दों के आगमन के पूर्व यहाँ विद्यमान थे और यदि शब्द थे तो शब्द का विचार तो होगा ही | गत सहस्त्राब्दी में इस्लामी और ईसाई विस्तारवादी आन्दोलन ने जहाँ अनेकों राष्ट्रों व संस्कृतियों को पददलित किया वहीँ ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने अपनी विजय पताका को चहुँ दिशाओं में फहरा कर एक लोकोक्ति को प्रचलित किया “ब्रिटिश साम्राज्य में कभी सूर्यास्त नहीं होता” | औद्योगीकरण व वैज्ञानिक प्रगति के साथ मानवता पर भीषण अत्याचार के बल पर पश्चिमी जगत ने अपनी दादागिरी को विश्व में स्थापित किया है और भारत इस्लामी- ईसाई व साम्राज्यवादी अत्याचार कि भेंट चढ़ा एक महत्वपूर्ण राष्ट्र है | भारत को कुटिल विदेशी दृष्टि के INDIA के माध्यम से समझने जैसा ही कार्य इतिहास को HISTORY के अनुसार समझने का हुआ है और यहीं से सारी विकृति का प्रारम्भ होता है | भारत व राष्ट्र के ही समान इतिहास भी प्राचीन भारतीय (संस्कृत) शब्द है और यदि शब्द है तो इसके पीछे विचार भी होगा, किन्तु दुर्भाग्य से इतिहास शब्द के पीछे के विचार को तिलांजलि दे हमने इसे HISTORY के अनुसार ढालने का कुकृत्य किया और सहज ही स्वीकार कर लिया कि भारत में इतिहास वृत्ति का सर्वथा अभाव रहा | भारतीयों ने इतिहास लिखा ही नहीं क्योंकि संभवत: भारत का कोई इतिहास है ही नहीं अत: विदेशियों ने जो कुछ INDIA के बारे में लिखा उसे ही हम इतिहास की संज्ञा देंगे, भारतीय संस्कृत साहित्य के अनुसार नहीं | इसी मानसिक परतंत्रता की अपेक्षा की थी फिरंगी मैकाले ने, हम भारतीयों ने उसकी अपेक्षा को निज से अधिक महत्त्व देकर फिरंगियों के प्रति अपनी निष्ठा का प्रमाण दिया है | NATION- STATE के विचार को मान्यता देने वालों से मेरा प्रश्न है कि वे USSR, GERMANY, KORIYA, CHINA की राष्ट्रीयता को कैसे वर्णित करेंगे ? क्या भारत की राष्ट्रीयता अंग्रेजी प्रभाव व सत्तालोभी कांग्रेस के पाकिस्तान सम्बन्धी उस निर्णय से परिवर्तित हो जाती है जिससे भारत के शासन को २ भागों में बाँट, एक भाग मुस्लिम समुदाय को दे दिया गया | १ अथवा २ दिनों में कैसे एक सनातन पुरातन राष्ट्र की राष्ट्रीयता परिवर्तित हो सकती है ? ब्रिटिश शासकों ने भारत में सीधे अपने राज्य की स्थापना के साथ इस सांस्कृतिक नव चेतना की उपेक्षा ही नहीं की, बल्कि इसका प्रतिरोध भी किया। पाश्चात्य देश ने राजनीतिक राष्ट्रवाद को योजनापूर्वक भारतीयों पर लादा। भारत में राष्ट्रवाद के अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं किया। भारत को भविष्य में बनने वाला राष्ट्र कहा। कुछ भारतीय विद्वानों ने भी तत्कालीन भारतीय राष्ट्रवाद की उपेक्षा करते हुए उसे प्रारंभिक राष्ट्रवाद, भ्रूणावस्था में राष्ट्रवाद आदि भ्रमित नाम दिए। अंग्रेजों ने अपने लेखों तथा व्यवहार में हिन्दू तथा हिन्दुस्थान शब्दों के उच्चारण से भी परहेज किया। उन्होंने यहां के प्रमुख समुदायों को मुस्लिम तथा गैर-मुस्लिम कहना शुरू किया तथा दोनों को बांटने का षड्यंत्र रचा। सामान्यत: हिन्दू धर्म को ब्राहृणवाद कहा गया। परस्पर अलगाव व टकराव को प्रोत्साहन दिया। १८८५ में ए.ओ. ह्रूम द्वारा तत्कालीन वायसराय लार्ड डफरिन के आशीर्वाद से अखिल भारतीय कांग्रेस की स्थापना की गई। इसका उद्देश्य ब्रिटिश राज्य की सुरक्षा तथा तत्काल बढ़ते राष्ट्रवाद को नष्ट करना था। सामान्य कांग्रेस के सदस्यों ने पश्चिमी राष्ट्रवाद के प्रति पूर्ण आस्था तथा संवैधानिक मार्ग से कुछ सुविधाओं को प्राप्त करने का अपना लक्ष्य बनाया। उन्होंने स्वीकार किया कि भारत कोई राष्ट्र नहीं है। एक नेता सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने अपनी आत्मकथा का नाम ही "A Nation in the Making रख दिया इस काल में गणपति तथा शिवाजी उत्सवों के अतिरिक्त हिन्दी भाषा, गोरक्षा, गीता, रामायण, रक्षाबंधन, दुर्गापूजा, वन्दे मातरम् के साथ भारत माता की जय के द्वारा राष्ट्रीय जागरण एवं प्रेरणा के स्वर भी सुनाई दिये। परन्तु यह भी सत्य है, जैसा विश्व प्रसिद्ध विद्वान नीरद चौधरी ने लिखा, कि तिलक की मृत्यु (१९२०) के साथ कांग्रेस का यह सांस्कृतिक एजेण्डा समाप्त हो गया। परिणामस्वरूप कालान्तर में अनेक ने कांग्रेस छोड़ दी। उदाहरणत: मध्य भारत कांग्रेस के मंत्री डा. केशवराव बलिराम हेडगेवार ने १९२५ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। महर्षि अरविन्द ने पांडिचेरी आश्रम को स्थायी रूप से अपनी साधना-स्थली बना लिया। सुभाष चन्द्र बोस को कांग्रेस छोड़नी पड़ी। हिन्दू महासभा का आविर्भाव भी कांग्रेस में सांस्कृतिक आधार का अभाव होना था। वस्तुत: भारतीय क्रांतिकारियों ने सांस्कृतिक धारा का प्रतिनिधित्व किया तथा इसे भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन का आधार बनाया। १८५७ से १९४७ तक इस निमित्त संघर्ष तथा बलिदान की परम्परा अबाध गति से चलती रही। कूका आन्दोलन की गूंज तथा बासुदेब बलवन्त फड़के का बलिदान भारत के क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गया। चाफेकर बन्धुओं ने हिन्दू धर्म संरक्षिणी बनाई तथा शिवाजी उत्सव पर कहा, "चुप मत बैठो, बेकार पृथ्वी पर बोझ मत बनो, हमारे देश का नाम तो हिन्दुस्थान है, यहां अंग्रेज क्यों राज्य कर रहे हैं?" विनायक दामोदर सावरकर भारत के इतिहास में पहले ऐसे क्रांतिकारी थे जिन्होंने विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने १८५७ के "विद्रोह" को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा, समाज में हिन्दुत्व का भाव जागृत किया तथा अखण्ड भारत का घोष किया। बंगाल, पंजाब, दिल्ली में अनेक क्रांतिकारियों ने संघर्षों में भाग लिया। अमरीका में लाला हरदयाल तथा उनके साथियों ने भारतीय संस्कृति का गुणगान करते हुए गदर पार्टी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारत में इसके विस्तार के अनेक प्रयत्न हुए। इंग्लैण्ड में मदनलाल धींगरा ने अपनी फांसी के पूर्व जो वक्तव्य दिया वह भारत की स्वतंत्रता के लिए सांस्कृतिक गान ही तो था। क्रांतिकारियों का संस्कृति प्रेरित यह सन्देश फ्रांस, जर्मनी तथा रूस तक फैला था। दिल्ली का बमकाण्ड, काकोरी षड्यंत्र, आजाद, भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के बलिदान इसी सांस्कृतिक प्रेरणा के दिव्य प्रसंग हैं। संक्षेप में देश के अनेक नवयुवकों ने राष्ट्र यज्ञ में आहुतियां देकर, गीता पर हाथ रखकर, पुनर्जन्म की कामना कर गौरवमयी अतीत का यशोगान कर अपने प्राणों का बलिदान दिया। वन्देमातरम् इस देश की संस्कृति एवं राष्ट्रीयता का जयघोष बना। भारतीय इतिहास बोध के प्रमाण विश्व के प्राचीनतम ज्ञान अभिलेख ऋग्वेद में हैं। ऋग्वेद का नासदीय सूक्त सुदूर अतीत (इतिहास) जानने की गहनतम जिज्ञासा है। वैदिक साहित्य में गाथा, नाराशंसी, आख्यान, आख्यिका आदि के उल्लेख हैं। अथर्ववेद (१२.६.११) में सीधे इतिहास शब्द का ही प्रयोग हुआ है, तमितिहासश्च पुराणं च गाथाश्च, नाराशंसीश्चानुव्य चलन्। छान्दोग्य उपनिषद् में नारद ने सनत कुमार को स्वयं द्वारा पढ़े गए विषयों में इतिहास को भी शामिल किया है। यास्क ने नाराशंसी को व्यक्ति की प्रशंसा वाले मन्त्र बताया है। मोनियर विलयम ने आख्यान को प्राचीन काल में घटित घटना से जुड़ा सम्वाद बताया है। ऐतरेय ब्राह्मण (३.२५.१) में ‘आख्यानविद्’ का उल्लेख है। उत्तरवैदिक काल में रचे गए बा्रह्मण ग्रन्थों-शतपथ, जैमिनीय और गोपथ में ‘इतिहास’ शब्द का प्रयोग हुआ है। पुराणों में वर्णन विश्लेषण का विस्तार है, पार्जीटर ने इन्हें इतिहास की सामग्री से भरापूरा बताया है। कौटिल्य ने विश्वविख्यात ग्रन्थ ‘अर्थशास्त्र’ में पुराण, इतिवृत्त, आख्यिका, उदाहरण, धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र को इतिहास बताया है- पुराणमितिवृतमारिव्यको दाहरणं धर्मशास्त्रमर्थशास्त्रं चेतिहासः। ऋग्वेद से लेकर समूचे वैदिक साहित्य, पुराण, रामायण व महाभारत तक प्राचीन भारतीय इतिहास का विस्तार है। ऋग्वेद के ऋषि किसी नूतन पथ की स्थापना नहीं करते। ऋषि प्राचीन परम्परा को ही आगे बढ़ाते हैं। इस परम्परा का मूल तत्व है ऋग्वेद में आया शब्द ‘ऋत’। ऋत जैसा अर्थ देने वाला शब्द दुनिया की किसी भाषा में नहीं है। पश्चिमी दर्शन और विचार सारिणी में आए `Lax Naturale’ और ‘Archetype’ शब्द ऋत के करीबी हैं लेकिन ऋत नहीं है। ऋत ब्रह्माण्डीय संविधान है। यही दैव है, दैवीय है, अणिमा (Micro), महिमा और दिव्यता भी है। ऋग्वेद (१०.१९०) में प्राचीन इतिहास का आदि बिन्दु है। ऋषि सृष्टि सर्जन के क्षण से पृथ्वी की निर्मिति तक का इतिहास बताते हैं ऊष्मा से ऋत सत्य की उत्पत्ति हुई। घोर अंधकार, फिर समुद्र फिर संवत्सर और दिन रात सूर्य चन्द्र और पृथ्वी अंतरिक्ष बने। ऋत सत्य एक ही है। मुण्डकोपनिषद् में सत्यमेव जयते नानृतम् मन्त्र है। ‘नानृतम्’ वस्तुतः न अन् ऋतम् है। जो ऋत नहीं है, वही ‘अनृत’ है, झूठ है। ऋत, सत्य और धर्म भी एक ही है। भारतीय इतिहास बोध में राष्ट्र का गौरवबोध है, ऋत सत्य का आत्मबोध भी है। गांधी जी के चित्त में इतिहास की ऐसी ही निष्ठा थी। लेकिन यूरोपीय तर्ज के इतिहास में ऋत सत्य के विपरीत कलह और कोलाहल को ही प्रमुख महत्व मिलता है। उन्होंने लिखा जब इस दया की, प्रेम की और सत्य की धारा रुकती है, टूटती है, तभी इतिहास में वह लिखा जाता है। एक कुटुम्ब के दो भाई लड़े। इसमें एक ने दूसरे के खिलाफ सत्याग्रह का बल काम में लिया। दोनों फिर से मिल-जुलकर रहने लगे। अम्बानी बंधु लड़ते हैं, मुकदमेंबाजी करते हैं। Print और Electronic Media के हीरो बन जाते हैं। यूरोपीय तर्ज की इतिहास शैली राजाओं की वंशावली बनाती है। युध्दों को विशेष महत्व देती है। सिंकदर कोई बड़ा राजा नहीं था, न वीर था, न पराक्रमी था लेकिन इतिहासकारों ने उसे महानायक और ‘The Great’ बनाया। ब्रिटेन का इतिहास राजाओं का इतिहास है। इस इतिहास को विशेषज्ञ ही जान पाते हैं। भारत का इतिहास लोकस्मृति में है। राजा हरिश्चन्द्र भारत के गांव गली तक अपनी सत्यनिष्ठा के लिए चर्चित हैं। राम भी राजा थे। भारत के अशिक्षित भी ‘रामराज्य’ के प्रशंसक है। गांधी जी रामराज्य का स्वप्न देखते थे। यूरोपीय इतिहास में राजा राम, राजा हरिश्चन्द्र, धु्रव, प्रहलाद या लोकमन में घट घट व्याप्त श्रीकृष्ण जैसे इतिहास नायक नहीं है। बेशक ख्यातिनाम लोग यूरोप में भी हैं पर लोकमन और लोकस्मृति में इतिहास संजोने का भारतीय इतिहास का अंदाज निराला है। यूरोपीय इतिहासकार और उनके पिछलग्गू कतिपय भारतीय विद्वान आर्यों को विदेशी बताते है। विश्वविद्यालय यही कचरा इतिहास पढ़ा रहे हैं लेकिन भारत की श्रुति, स्मृति, गीत, गाथा, आख्यिका और लोककथाओं में आर्य विदेशी नहीं है। सो कोई भी भारतीय आर्यो को विदेशी नहीं मानता, नहीं जानता। यूरोपीय इतिहास शैली अस्वाभाविक है। गांधी जी ने ‘हिन्द स्वराज’ में ठीक लिखा हिस्ट्री अस्वाभाविक बातों को दर्ज करती है। वास्तव में भारतीय मनीषा में राष्ट्र व राज्य के स्पष्ट अंतर से पश्चिमी देशों का समाज हतप्रभ व अचंभित था, वहाँ वैसी स्थिति के अभाव में NATION-STATE के विचार का विकास हुआ तथा NATION को STATE से अभिन्न मानने की व्यवस्था का सूत्रपात हुआ | यद्यपि भरतखण्ड, भारत, भारतवर्ष आदि नामों से इस राष्ट्र की सत्ता का दर्शन संस्कृत वांग्मय में प्रचुरता से मिलता है- “उत्तरम् यत् समुद्रस्य, हिमाद्रेश्चैव दक्षिणं | वर्षं तद भारतं नाम भारती यत्र संतति:” || (विष्णुपुराण) महाभारत नामक महाग्रंथ के शांतिपर्व में भीष्म पितामह द्वारा उस स्थिति का वर्णन है जब यह राष्ट्र राज्यरहित था क्योंकि सभी स्वधर्म का पालन करते थे | राज्य की आवश्यकता इस धर्म का ह्रास होने के कारण पड़ी | भारत की राष्ट्रीय परम्परा जहाँ अनादिकाल से विद्यमान रही, पश्चिमी राज्यों में वैसी परम्परा का सर्वथा अभाव था | भारत के इतिहासज्ञ चाहे वेदों को गडरियों के गीत कहें अथवा मिथ्या कपोल-कल्पनाएँ, एक बात तो विश्व समुदाय स्वीकार करता है कि `वेद’ मानव जाति की सर्वप्रथम रचना हैं और वेदों में भी ऋग्वेद विश्व की सबसे पहली कृति है | वेदों की रचना के कालनिर्धारण की चिंता भारतीयों ने नहीं की, वरन ईसाई विश्वास के पूर्वाग्रह से ग्रस्त पश्चिमी विद्वानों ने ६००० वर्षों में समस्त विश्व के इतिहास को समेट लेने के पूर्वाग्रह से वेदादि संपूर्ण भारतीय संस्कृत साहित्य की रचना के काल का निर्धारण किया | चरों वेदों में राष्ट्र सम्बन्धी भारतीय अवधारणा के प्रमाण यत्र तत्र सर्वत्र मिलते हैं | “वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिता:” (ऋग्वेद १.२३), “माता भूमि: पुत्रोऽयं पृथ्विया:” (अथववेद १२.१.१२), “आ ब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतामा राष्ट्रे राजन्य: शूर इषव्योऽतिव्याधीमहारथो जायतां दोग्ध्री धेनुर्वोढानड्वानाशु: सप्ति: पुरन्धिर्योषा: जिष्णू रथेष्ठा: सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतो निकामे-निकामे न: पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो न ओषधय: पच्यन्तां योगक्षेमो न: कल्पताम्” (यजुर्वेद २२.२२) आदि अनेकों वेदवचन वैदिक् ऋषियों की राष्ट्र अवधारणा को स्पष्ट करते हैं। एक ऐसा राष्ट्र जिसका विचार वैश्विक है, विशाल है, विस्तृत है जो समस्त पृथ्वी, समष्टि के कल्याण की कामना करता है। अथर्ववेद का भूमिसूक्त तो पृथ्वी को ही समर्पित है। मन्त्र (१२.१.१२) है: ‘यत् ते मधयं पृथिवि यच्च नभ्यं, यास्ते ऊर्जस्तन्व: संबभूवु:, तासु नो धे”यभि न: पवस्व, माता भूमि: पुत्रेहं पृथिव्या:, पर्जन्य: पिता स उ न: पिपर्तु।’ यानी हे पृथ्वी, यह जो तुम्हारा मध्यभाग है और जो उभरा हुआ ऊधर्वभाग है, ये जो तुम्हारे शरीर के विभिन्न अंग ऊर्जा से भरे हैं, हे पृथ्वी मां, तुम मुझे अपने उसी शरीर में संजो लो और दुलारो कि मैं तो तुम्हारे पुत्र के जैसा हूं, तुम मेरी मां हो और पर्जन्य का हम पर पिता के जैसा साया बना रहे। इस तरह के संवेदना से भरे उद्गारों को पढ़ते जाइए तो लगता है कि कवि को यह भूमि पहाड़ों और नदियों का मात्र कोई भौगोलिक पिंड नजर नहीं आ रही, बल्कि उसने पृथ्वी से अपना खून का रिश्ता जोड़ लिया है, क्योंकि भूमि ने उसे इतना कुछ दिया है, पाल-पोस कर बड़ा कर दिया है। एक मन्त्र (१२.१.१६) क्यों न पढ़ लिया जाए, जिसमें कवि पृथ्वी के प्रति इसलिए कृतज्ञता से भरा है, क्योंकि अपने भीतर समाए धन और अपनी छाती पर उगे धान्य से उसने कवि को समृद्ध कर दिया है, रईस बना दिया है: ‘विश्वंभरा वसुधानी प्रतिष्ठा, हिरण्यवक्षा जगतो निवेशनी, वैश्वानरं बिभ्रती भूमिरग्निम् इन्द्र ऋषभा द्रविंण नो दधातु’ अर्थात् पूरी दुनिया का भरण-पोषण करने वाली यह पृथ्वी वसु (धन) की खानें अपने में धारण किए है, इसकी छाती (वक्ष) सोने की है, सारा जगत उसमें समाया है, सारे संसार की भूख यह मिटाती है, हमारी कामना है कि यह हमें समृद्धि में नहलाए रखे। खेतों और खानों से मिलने वाली समृद्धि से अभिभूत कवि इस बात से भी चकाचौंध है कि कैसे इस भूमि पर दिन-रात पानी की प्रभूत धाराएं बिना किसी प्रमाद के लगातार बहती रह कर उसे वर्चस्व से सम्पन्न कर रही हैं (१२.१.१९)- यस्यामाप: परिचरा समानी: अहोरात्रे अप्रमादं क्षरन्ति, सा नो भूमिर्भूरिधारा पयोदुहा अथो उक्षतु वर्चसा। सूक्त में ऋषि ने सचमुच भूमि के साथ मां का नाता जोड़ लिया है और उससे वैसे ही दूध की कामना कर रहा है जैसे कोई शिशु अपनी मां से दूध की कामना करता है- सा नो भूमिर्विसृजतां माता पुत्रय मे पय: (१२.१.१०), यानी यह भूमि मेरे लिए वैसे ही दूध (पय:) की धारा प्रवाहित करे, जैसे मां अपने बेटे के लिए करती है। पर वह भूमि मां है कैसी? कवि उसकी दिव्यता से अभिभूत है और कल्पना करता है, उसी मन्त्र में कि यह वह पृथ्वी है, जिस पर अश्विनी कुमारों ने अपना रथ चलाया था, जिसे विष्णु ने अपने कदमों से लांघा था, जिसे इन्द्र ने अपने लिए शत्रुविहीन कर दिया था, वह मेरी मां मेरे लिए अपने शिशु की तरह दूध प्रवाहित करे। कवि चाहता तो पृथ्वी को अन्न देने वाली कह कर रुक जाता, पर उसने उसमें मां के दर्शन किए, उसमें दिव्यता के दर्शन किए और उसे अपने और पूर्वजों के इतिहास से भी जोड़ दिया। मन्त्र संख्या (१२.१.२४) में कवि ने एक बड़ी ही मजेदार बात कही है कि भूमि की गंध को सूर्या के विवाह में भी बिखेरा गया। (यस्ते गंध: पुष्करमाविवेश यं संजभ्रु: सूर्याया विवाहे) अगली ही गाथा में हम देखेंगे कि कैसे सूर्या का विवाह हमारे राम परवर्ती और महाभारत पूर्ववर्ती इतिहास की अद्भुत सामाजिक घटना थी जो या तो ‘भूमिसूक्त’ के समकालीन थी या फिर थोड़ा ही पहले घटी थी। मन्त्र संख्या (१२.१.३८) में कवि ने पृथ्वी पर होने वाले यज्ञों की बात कही है तो इस बात को भी रिकार्ड कर दिया है कि इन यज्ञों में विद्वान लोग ऋचाओं, यजुषों व सोमों से हवि डालते हैं और यही वह पृथ्वी है, जहां भूतकाल में ऋषियों ने अनेक प्रकार का काव्य लिखा है- ‘यस्यां पूर्वे भूतकृत ऋषयो मा उदानृचु:’ (१२.१.३९) पृथ्वी को देख कर कवि इस कदर मुखर हो गया है कि वह सब कुछ लिख देना चाहता है, जो भी उसे पृथ्वी पर नजर आता है या वह उसके बारे में सोचता है। फटाफट एक विहंगावलोकन कर लिया जाए। इसी पृथ्वी पर समुद्र हैं, नदियां हैं और जल (यस्या समुद्रं उत सिंधुरापो: १२.१.३)। इसी पृथ्वी पर पत्थरों और हिम वाले पहाड़ हैं और जंगल फैले हैं (गिरयस्ते पर्वता हिमवन्तोरण्यं ते १२.१.११) इसी जमीन पर मनुष्य और पशु विचरण करते हैं (मर्त्यास्त्वं बिभर्षि द्विपदश्चतुष्पद: १२.१.१२)। यही भूमि तमाम औषधियों की जननी है (विश्वस्वं मातरमोषधीनां १२.१.१७) जिसकी गंध को गंधर्व और अप्सराएं सूंघते नहीं अघाते (यं गंधर्वा अप्सरसश्च भेजिरे तेन या सुरभि कृपु: १२.१.२३) इसी पर सभी वृक्ष और वनस्पतियां अपनी जड़े टिकाए हैं (यस्यां वृक्षा वानस्पत्या ध्रुवास्तिष्ठन्ति १२.१.२७) और इसी पर हैं शिलाएं, पत्थर और मिट्टी (शिला भूमिरश्मा पांसु: सा भूमि: संध्रता धृता: १२.१.२६) पर इसी भूमि को, भूमि मां को अपने फायदों के लिए खोदना पड़ता है तो कारुणिक कवि प्रार्थना करता है कि वह तो करना ही पड़ेगा, पर हे भूमि, उससे तुम्हारे मर्मस्थलों और हृदय को पीड़ा न पहुंचे-यत् ते भूमे विखनामि क्षिप्रां तदपि रोहतु मा ते मर्म विमृग्वरि (१२.१.३५)। कवि के उद्गारों की तीव्रता, अनुभूति और अभिव्यक्ति इन दोनों स्तरों की तीव्रता देखकर तो लगता है कि वह अपने भूमि वर्णन में कभी रूकेगा ही नहीं। पर ऐसा चूंकि संभव नहीं था, इसलिए ६३ मन्त्रों का लम्बा, रंगबिरंगा और भावप्रवण सूक्त लिख कर कवि थम जाता है। पर ६३ मन्त्रों के इस बृहत्तर सूक्त में कम से कम तीन स्थानों पर सूक्तकार ने उस सत्य को खोजने का प्रयास किया है, जिसके कारण यह भूमि टिकी है और जिस कारण वह इसमें मां के दर्शन कर रहा है। सूक्त के पहले ही मन्त्र (१२.१.१) में वह कहता है कि सत्य, दीक्षा, तप, ब्रह्म और यज्ञ ने इस पृथ्वी को टिका रखा है- सत्यं बृहदुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञ: पृथिवीं धारयन्ति। आठवें मन्त्र में कवि फिर कहता है कि पृथ्वी का हृदय सत्य से ओतप्रोत है- यस्या हृदयं परमे व्योमन् सत्येनावृतं अमृतं पृथिव्या:। मन्त्र (१२.१.१७) में कवि कहता है कि इस पृथ्वी को धर्म ने धारण कर रखा है- भूमिं पृथिवीं धर्मणा धृताम्। भूमि (पृथ्वी) के प्रति भारतीय ऋषि के यह उद्गार अनायास ही नहीं हैं, इसमें निहित है अपनी मातृभूमि- पितृभूमि- पुण्यभूमि (राष्ट्र) के प्रति अगाध श्रद्धा | धर्म की अवधारणा स्मृति ग्रन्थों का मूल है, ब्राह्मण ग्रन्थ, पौराणिक साहित्य, रामायण, महाभारत काव्य सभी धर्म की श्रुति- स्मृति की अवधारणा का अनुपालन करते हैं। पौराणिक साहित्य में तो भारतभूमि की प्रशंसा करते हुए, देवताओं द्वारा इस पुण्य भूमि पर जन्म लेने की इच्छा का वर्णन करता है तथा भारतभूमि की भौगोलिक स्थिति का वर्णन करते हुए यहां के पर्वत- वन- नदियां- सरोवर आदि के विस्तार का वर्णन करता है जिससे पौराणिक काल में भारत नामक राष्ट्र की स्थिति स्पष्ट होती है। भारत की ४ दिशाओं में स्थित ४ धाम, ७ पुरियां, द्वादश ज्योतिर्लिंग, ५१ शक्तिपीठ आदि भारत के सांस्कितिक ऐक्य के परिचायक हैं। इसी एकता को आद्य शंकराचार्य ने भारत की ४ दिशाओं में ४ शाड़्करपीठों की स्थापना कर और पुष्ट किया। भारतीय राष्ट्रीयता को समझने के लिए राष्ट्र को राज्य से पृथक करके देखना होगा तथा भारत के अपने साहित्य का अवलोकन करना होगा। भारत में अनेकों राज्यों की स्थिति उसके सांस्क्रितिक् राष्ट्रवाद को कहीं भी बाधित नहीं करती है। बाधा है तो मात्र विश्व को अपने ढंग से चलाने वालों की धारणा की तथा उससे भी अधिक पश्चिमी विचार को सर्वथा श्रेष्ठ मान कर अनुकरण करने वाले भारतीयों की। अपने राष्ट्र व समाज के विषय में हमें अपनी भाषा में अपने साहित्य को आदर्श मान कर विचार करना अपरिहार्य है। छायावाद के प्रसिद्ध कवि महाप्राण निराला का भारतभूमि के प्रति समर्पण इसी राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति है- || भारत ही जीवन वान ज्योतिर्मय परम रमण सर- सरिता – वन- उपवन || निराला की ही ये पंक्तियां भारत कि भौगोलिक स्थिति का चित्रण करती हैं- || वंदु तव पद कमाल चिर सेवित चरण युगल, मुकुट शुभ्र हिमागार हृदय बीचविमल हार पञ्च सिंधु ब्रह्मपुत्र रवि तनया गंगा विन्ध्य विपिन राजे घन चेरि युगल जंघा || जयशंकर प्रसाद के “चन्द्रगुप्त” नाटक का प्रसिद्द गीत || अरुण यह मधुमय देश हमारा || किसे भारतवर्ष के प्रति भावविह्वल नहीं करता ? राष्ट्रीयता का एक पक्ष है अतीत की स्मृति | अतीत की स्मृति आत्मस्मृति है, यही आत्मस्मृति जीवन है और आत्मविस्मृति मरण | मैथिलीशरण गुप्त की रचना साकेत, जयशंकर प्रसाद की कामायनी, निराला की यमुना के प्रति, राम की शक्तिपूजा, दिनकर की रश्मिरथी यही आत्मस्मृति है.........क्या इसे इतिहास नहीं कहा जा सकता ? और इसके पश्चात् जयशंकर प्रसाद के चन्द्रगुप्त और स्कन्दगुप्त नाटक में अतीत को
वर्त्तमान के लिए प्रेरणास्पद कैसे बनाया- || वही है रक्त वही है देह वही साहस वैसा ही ज्ञान, वही है शांति वही है शक्ति वही हम दिव्य आर्य सन्तान जियें तो सदा उसी के लिए वही अभिमान रहे यह हर्ष, निछावर कर दें हम सर्वस्व हमारा प्यारा भारतवर्ष || अपनी संस्कृति के प्रति गौरवबोध वस्तुत: राष्ट्रीय अस्मिता का भाग है और यही राष्ट्रीय अस्मिता राष्ट्रबोध का अभिन्न अंग | निज संस्कृति के प्रति विस्मरण का भाव देखकर रचनाकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी पश्चिम के अनुकरण पर क्षोभ व्यक्त करते हुए कहते हैं- हममें अपनी समृद्ध विरासत के प्रति न तो किसी प्रकार का प्रेम बच रहने के लक्षण दिखते हैं ना ही ममता का भाव | जिस दिन हम अपने गौरवशाली अतीत को निज के साथ जोड़ेंगे उस दिन हमारा भविष्य स्वर्णिम होकर प्रकट होगा | साम्यवादी विचारधारा पर प्रहार करते हुए अज्ञेय कहते हैं- “मैं जानता हूँ कि ऐसा भी होता है कि कुछ लोग अपने को देश से कटा हुआ स्वीकार कर कहते हैं कि हम तो विश्व के नागरिक हैं, पर यहाँ मात्र दिलासा ही है, स्वराष्ट्र से कट कर विश्व नागरिकता नहीं मिलती, स्वदेश से एकात्म होकर उसकी सीमा के अतिक्रमण करने से मिलती है | इस प्रकार भारत कि अपनी भाषा से एकाकार साहित्य भारतीय संस्कृति व राष्ट्रीयता का पूर्ण श्रद्धा व प्रतिबद्धता से अनुकरण करता है व स्थापित करता है भारत की राष्ट्रीयता का यथार्थ | राष्ट्रीयता सम्बन्धी प्रभावी विचारकों में HANS KOHN नामक यहूदी अमरीकी विद्वान का विचार ध्यातव्य हैं- “राष्ट्रीयता के सम्बन्ध में राज्य नहीं समान भूक्षेत्र महत्वपूर्ण है” । अमरीकी लेखक Andrew Zimmern राष्ट्रीयता को विषयनिष्ठ मानते हैं, जबकि राज्य को वस्तुनिष्ठ; उनके अनुसार राष्ट्रीयता मनोवैज्ञानिक व्यवस्था है जबकि शासन राजनैतिक प्रबन्ध; राष्ट्रीयता मन की एक अवस्था है तथा शासन विधि का एक स्वरूप; राष्ट्रीयता का सम्बन्ध आत्मा से है जबकि राज्य व्यवस्था एक स्वीकार्यता; राष्ट्रीयता अनुभवजन्य- वैचारिक व नैष्ठिक है तथा राज्य व्यवस्था एक औपचारिक तन्त्र | किसी विदेशी के कथन से प्रेरणा लेकर करें अथवा स्वस्फूर्त मनीषा के बल पर, एक बात को हमें स्वीकार करना ही होगा कि राष्ट्र व राज्य पृथक हैं | राज्य राष्ट्र का उपकरण है किन्तु स्वयं में राष्ट्र नहीं | UNION OF STATES राष्ट्र नहीं हो सकता क्योंकि वह UNION बलात भी हो सकती है स्वार्थवश भी, जबकि राष्ट्र के विभिन्न घटकों का संबंध आत्मिक है, स्वैच्छिक है, सांस्कृतिक है, नि:स्वार्थ है | उत्तर भारत के भारतवंशी के लिए दक्षिण के सेतुबंध रामेश्वरम के प्रति, पूर्व के जगन्नाथपुरी के प्रति व पश्चिम के द्वारिका के प्रति उतनी ही श्रद्धा है जितनी उत्तर भारत के हिमालय क्षेत्र स्थित बद्रीनाथ धाम के प्रति है और यह श्रद्धा १५ अगस्त १९४७ के पश्चात् नहीं निर्मित हुई है जब खण्डित भारत को UNION OF STATES का नाम देकर उसे NATION IN MAKING कहा गया वरन सहस्त्रों वर्षों से अविछिन्न रूप से विद्यमान है | ये सभी स्थान भारत राष्ट्र का भाग रहे हैं (एक सांस्कृतिक राष्ट्र भारत के) | कुटिल फिरंगी के भारत को सतत निर्बल व तेजहीन बनाने के षडयंत्र को पहचान जिस दिन हम वास्तविकता के धरातल से निज भाषा के माध्यम से राष्ट्र व राष्ट्रीयता के विषय पर दृष्टिपात करेंगे, हमारे समस्त पूर्वाग्रह व भ्रम स्वत: ही नष्ट हो जाएँगे व उस उर्वरा भूमि से उद्भव होगा स्वर्णिम भारत के युग का, जिसके कारण भारत को सोने की चिड़िया कहा गया | वह दिन शीघ्र आए, ऐसी कामना है, वन्देमातरम् ! डॉ. जय प्रकाश गुप्त चिकित्सक राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, अम्बाला छावनी । ईमेल- chikitsak@rediffmail.com Mob- 9315510425

Sunday, April 24, 2011

अम्बेडकर और इस्लाम


मुस्लिमों के कथित दलित-प्रेम का भंडाफोड ..इस्लाम के सम्बन्ध में स्वयं बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर के विचार --

१. हिन्दू काफ़िर सम्मान के योग्य नहीं-''मुसलमानों के लिए हिन्दू काफ़िर हैं, और एक काफ़िर सम्मान के योग्य नहीं है। वह निम्न कुल में जन्मा होता है, और उसकी कोई सामाजिक स्थिति नहीं होती। इसलिए जिस देश में क़ाफिरों का शासनहो, वह मुसलमानों के लिए दार-उल-हर्ब है ऐसी सति में यह साबित करने के लिए और सबूत देने की आवश्यकता नहीं है कि मुसलमान हिन्दू सरकार के शासन को स्वीकार नहीं करेंगे।'' (पृ. ३०४)

२. मुस्लिम भ्रातृभाव केवल मुसलमानों के लिए-''इस्लाम एक बंद निकाय की तरह है, जो मुसलमानों और गैर-मुसलमानों के बीच जो भेद यह करता है, वह बिल्कुल मूर्त और स्पष्ट है। इस्लाम का भ्रातृभाव मानवता का भ्रातृत्व नहीं है, मुसलमानों का मुसलमानों से ही भ्रातृभाव मानवता का भ्रातृत्व नहीं है, मुसलमानों का मुसलमानों से ही भ्रातृत्व है। यह बंधुत्व है, परन्तु इसका लाभ अपने ही निकाय के लोगों तक सीमित है और जो इस निकाय से बाहर हैं, उनके लिए इसमें सिर्फ घृणा ओर शत्रुता ही है। इस्लाम का दूसरा अवगुण यह है कि यह सामाजिक स्वशासन की एक पद्धति है और स्थानीय स्वशासन से मेल नहीं खाता, क्योंकि मुसलमानों की निष्ठा, जिस देश में वे रहते हैं, उसके प्रति नहीं होती, बल्कि वह उस धार्मिक विश्वास पर निर्भर करती है, जिसका कि वे एक हिस्सा है। एक मुसलमान के लिए इसके विपरीत या उल्टे सोचना अत्यन्त दुष्कर है। जहाँ कहीं इस्लाम का शासन हैं, वहीं उसका अपना विश्वासहै। दूसरे शब्दों में, इस्लाम एक सच्चे मुसलमानों को भारत को अपनी मातृभूमि और हिन्दुओं को अपना निकट सम्बन्धी मानने की इज़ाजत नहीं देता। सम्भवतः यही वजह थी कि मौलाना मुहम्मद अली जैसे एक महान भारतीय, परन्तु सच्चे मुसलमान ने, अपने, शरीर को हिन्दुस्तान की बजाए येरूसलम में दफनाया जाना अधिक पसंद किया।''

३. एक साम्प्रदायिक और राष्ट्रीय मुसलमान में अन्तर देख पाना मुश्किल-''लीग को बनाने वाले साम्प्रदायिक मुसलमानों और राष्ट्रवादी मुसलमानों के अन्तर को समझना कठिन है। यह अत्यन्त संदिग्ध है कि राष्ट्रवादी मुसलमान किसी वास्तविक जातीय भावना, लक्ष्य तथा नीति से कांग्रेस के साथ रहते हैं, जिसके फलस्वरूप वे मुस्लिम लीग् से पृथक पहचाने जाते हैं। यह कहा जाता है कि वास्तव में अधिकांश कांग्रेसजनों की धारण है कि इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है, और कांग्रेस के अन्दर राष्ट्रवादी मुसलमानों की स्थिति साम्प्रदायिक मुसलमानों की सेना की एक चौकी की तरह है। यह धारणा असत्य प्रतीत नहीं होती। जब कोई व्यक्ति इस बात को याद करता है कि राष्ट्रवादी मुसलमानों के नेता स्वर्गीय डॉ. अंसारी ने साम्प्रदायिक निर्णय का विरोध करने से इंकार किया था, यद्यपिकांग्रेस और राष्ट्रवादी मुसलमानों द्वारा पारित प्रस्ताव का घोर विरोध होने पर भी मुसलमानों को पृथक निर्वाचन उपलब्ध हुआ।'' (पृ. ४१४-४१५)

४. भारत में इस्लाम के बीज मुस्लिम आक्रांताओं ने बोए-''मुस्लिम आक्रांता निस्संदेह हिन्दुओं के विरुद्ध घृणा के गीत गाते हुए आए थे। परन्तु वे घृणा का वह गीत गाकर और मार्ग में कुछ मंदिरों को आग लगा कर ही वापस नहीं लौटे। ऐसा होता तो यह वरदान माना जाता। वे ऐसे नकारात्मक परिणाम मात्र से संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने इस्लाम का पौधा लगाते हुए एक सकारात्मक कार्य भी किया। इस पौधे का विकास भी उल्लेखनीय है। यह ग्रीष्म में रोपा गया कोई पौधा नहीं है। यह तो ओक (बांज) वृक्ष की तरह विशाल और सुदृढ़ है। उत्तरी भारत में इसका सर्वाधिक सघन विकास हुआ है। एक के बाद हुए दूसरे हमले ने इसे अन्यत्र कहीं को भी अपेक्षा अपनी 'गाद' से अधिक भरा है और उन्होंने निष्ठावान मालियों के तुल्य इसमें पानी देने का कार्य किया है। उत्तरी भारत में इसका विकास इतना सघन है कि हिन्दू और बौद्ध अवशेष झाड़ियों के समान होकर रह गए हैं; यहाँ तक कि सिखों की कुल्हाड़ी भी इस ओक (बांज) वृक्ष को काट कर नहीं गिरा सकी।'' (पृ. ४९)

५. मुसलमानों की राजनीतिक दाँव-पेंच में गुंडागर्दी-''तीसरी बात, मुसलमानों द्वारा राजनीति में अपराधियों के तौर-तरीके अपनाया जाना है। दंगे इस बात के पर्याप्त संकेत हैं कि गुंडागिर्दी उनकी राजनीति का एक स्थापित तरीका हो गया है।'' (पृ. २६७)

६. हत्यारे धार्मिक शहीद-''महत्व की बात यह है कि धर्मांध मुसलमानों द्वारा कितने प्रमुख हिन्दुओं की हत्या की गई। मूल प्रश्न है उन लोगों के दृष्टिकोण का, जिन्होंने यह कत्ल किये। जहाँ कानून लागू किया जा सका, वहाँ हत्यारों को कानून के अनुसार सज़ा मिली; तथापि प्रमुख मुसलमानों ने इन अपराधियों की कभी निंदा नहीं की। इसके वपिरीत उन्हें 'गाजी' बताकर उनका स्वागत किया गया और उनके क्षमादान के लिए आन्दोलन शुरू कर दिए गए। इस दृष्टिकोण का एक उदाहरण है लाहौर के बैरिस्टर मि. बरकत अली का, जिसने अब्दुल कयूम की ओर से अपील दायर की। वह तो यहाँ तक कह गया कि कयूम नाथूराम की हत्या का दोषी नहीं है, क्योंकि कुरान के कानून के अनुसार यह न्यायोचित है। मुसलमानों का यह दृष्टिकोण तो समझ में आता है, परन्तु जो बात समझ में नहीं आती, वह है श्री गांधी का दृष्टिकोण।''(पृ. १४७-१४८)

७. हिन्दू और मुसलमान दो विभिन्न प्रजातियां-''आध्याम्कि दृष्टि से हिन्दू और मुसलमान केवल ऐसे दो वर्ग या सम्प्रदाय नहीं हैं जैसे प्रोटेस्टेंट्‌स और कैथोलिक या शैव और वैष्णव, बल्कि वे तो दो अलग-अलग प्रजातियां हैं।'' (पृ. १८५)

८. इस्लाम और जातिप्रथा-''जाति प्रथा को लीजिए। इस्लाम भ्रातृ-भाव की बात कहता है। हर व्यक्ति यही अनुमान लगाता है कि इस्लाम दास प्रथा और जाति प्रथा से मुक्त होगा। गुलामी के बारे में तो कहने की आवश्यकता ही नहीं। अब कानून यह समाप्त हो चुकी है। परन्तु जब यह विद्यमान थी, तो ज्यादातर समर्थन इसे इस्लाम और इस्लामी देशों से ही मिलता था। कुरान में पैंगबर ने गुलामों के साथ उचित इस्लाम में ऐसा कुछ भी नहीं है जो इस अभिषाप के उन्मूलन के समर्थन में हो। जैसाकि सर डब्ल्यू. म्यूर ने स्पष्ट कहा है-
''....गुलाम या दासप्रथा समाप्त हो जाने में मुसलमानों का कोई हाथ नहीं है, क्योंकि जब इस प्रथा के बंधन ढीले करने का अवसर था, तब मुसलमानों ने उसको मजबूती से पकड़ लिया..... किसी मुसलमान पर यह दायित्व नहीं है कि वह अपने गुलामों को मुक्त कर दें.....''
''परन्तु गुलामी भले विदा हो गईहो, जाति तो मुसलमानों में क़ायम है। उदाहरण के लिए बंगाल के मुसलमानों की स्थिति को लिया जा सकता है। १९०१ के लिए बंगाल प्रांत के जनगणना अधीक्षक ने बंगाल के मुसलमानों के बारे में यह रोचक तथ्य दर्ज किए हैं :
''मुसलमानों का चार वर्गों-शेख, सैयद, मुग़ल और पठान-में परम्परागत विभाजन इस पांत (बंगाल) में प्रायः लागू नहीं है। मुसलमान दो मुखय सामाजिक विभाग मानते हैं-१. अशरफ अथवा शरु और २. अज़लफ। अशरफ से तात्पर्य है 'कुलीन', और इसमें विदेशियों के वंशज तथा ऊँची जाति के अधर्मांतरित हिन्दू शामिल हैं। शेष अन्य मुसलमान जिनमें व्यावसायिक वर्ग और निचली जातियों के धर्मांतरित शामिल हैं, उन्हें अज़लफ अर्थात्‌ नीचा अथवा निकृष्ट व्यक्ति माना जाता है। उन्हें कमीना अथवा इतर कमीन या रासिल, जो रिजाल का भ्रष्ट रूप है, 'बेकार' कहा जाता है। कुछ स्थानों पर एक तीसरा वर्ग 'अरज़ल' भी है, जिसमें आने वाले व्यक्ति सबसे नीच समझे जाते हैं। उनके साथ कोई भी अन्य मुसलमान मिलेगा-जुलेगा नहीं और न उन्हें मस्जिद और सार्वजनिक कब्रिस्तानों में प्रवेश करने दिया जाता है।
इन वर्गों में भी हिन्दुओं में प्रचलित जैसी सामाजिक वरीयताऔर जातियां हैं।

१. 'अशरफ' अथवा उच्च वर्ग के मुसलमान (प) सैयद, (पप) शेख, (पपप) पठान, (पअ) मुगल, (अ) मलिक और (अप) मिर्ज़ा।
२. 'अज़लफ' अथवा निम्न वर्ग के मुसलमान

(i) खेती करने वाले शेख और अन्य वे लोग जो मूलतः हिन्दू थे, किन्तु किसी बुद्धिजीवी वर्ग से सम्बन्धित नहीं हैं और जिन्हें अशरफ समुदाय, अर्थात्‌ पिराली और ठकराई आदि में प्रवेश नहीं मिला है।

( ii) दर्जी, जुलाहा, फकीर और रंगरेज।

(iii) बाढ़ी, भटियारा, चिक, चूड़ीहार, दाई, धावा, धुनिया, गड्‌डी, कलाल, कसाई, कुला, कुंजरा, लहेरी, माहीफरोश, मल्लाह, नालिया, निकारी।

(iv) अब्दाल, बाको, बेडिया, भाट, चंबा, डफाली, धोबी, हज्जाम, मुचो, नगारची, नट, पनवाड़िया, मदारिया, तुन्तिया।

३. 'अरजल' अथवा निकृष्ट वर्ग

भानार, हलालखोदर, हिजड़ा, कसंबी, लालबेगी, मोगता, मेहतर।

जनगणना अधीक्षक ने मुस्लिम सामाजिक व्यवस्था के एक और पक्ष का भी उल्लेख किया है। वह है 'पंचायत प्रणाली' का प्रचलन। वह बताते हैं :

''पंचायत का प्राधिकार सामाजिक तथा व्यापार सम्बन्धी मामलों तक व्याप्त है और........अन्य समुदायों के लोगों से विवाह एक ऐसा अपराध है, जिस पर शासी निकायकार्यवाही करता है। परिणामत: ये वर्ग भी हिन्दू जातियों के समान ही प्रायः कठोर संगोती हैं, अंतर-विवाह पर रोक ऊंची जातियों से लेकर नीची जातियों तक लागू है। उदाहरणतः कोई घूमा अपनी ही जाति अर्थात्‌ घूमा में ही विवाह कर सकता है। यदि इस नियम की अवहेलना की जाती है तो ऐसा करने वाले को तत्काल पंचायत के समक्ष पेश किया जाता है। एक जाति का कोई भी व्यक्ति आसानी से किसी दूसरी जाति में प्रवेश नहीं ले पाता और उसे अपनी उसी जाति का नाम कायम रखना पड़ता है, जिसमें उसने जन्म लिया है। यदि वह अपना लेता है, तब भी उसे उसी समुदाय का माना जाता है, जिसमें कि उसने जन्म लिया था..... हजारों जुलाहे कसाई का धंधा अपना चुके हैं, किन्तु वे अब भी जुलाहे ही कहे जाते हैं।''

इसी तरह के तथ्य अन्य भारतीय प्रान्तों के बारे में भी वहाँ की जनगणना रिपोर्टों से वे लोग एकत्रित कर सकते हैं, जो उनका उल्लेख करना चाहते हों। परन्तु बंगाल के तयि ही यह दर्शाने के लिए पर्याप्त हैं कि मुसलमानों में जाति प्राणी ही नहीं, छुआछूत भी प्रचलित है।'' (पृ. २२१-२२३)

९. इस्लामी कानून समाज-सुधार के विरोधी-''मुसलमानों में इन बुराइयों का होना दुखदहैं। किन्तु उससे भी अधिक दुखद तथ्य यह है कि भारत के मुसलमानों में समाज सुधार का ऐसा कोई संगठित आन्दोलन नहीं उभरा जो इन बुराईयों का सफलतापूर्वक उन्मूलन कर सके। हिन्दुओं में भी अनेक सामाजिक बुराईयां हैं। परन्तु सन्तोषजनक बात यह है कि उनमें से अनेक इनकी विद्यमानता के प्रति सजग हैं और उनमें से कुछ उन बुराईयों के उन्मूलन हेतु सक्रिय तौर पर आन्दोलन भी चला रहे हैं। दूसरी ओर, मुसलमान यह महसूस ही नहीं करते कि ये बुराईयां हैं। परिणामतः वे उनके निवारण हेतु सक्रियता भी नहीं दर्शाते। इसके विपरीत, वे अपनी मौजूदा प्रथाओं में किसी भी परिवर्तन का विरोध करते हैं। यह उल्लेखनीय है कि मुसलमानों ने केन्द्रीय असेंबली में १९३० में पेश किए गए बाल विवाह विरोधी विधेयक का भी विरोध किया था, जिसमें लड़की की विवाह-योग्य आयु १४ वर्ष् और लड़के की १८ वर्ष करने का प्रावधान था। मुसलमानों ने इस विधेयक का विरोध इस आधार पर किया कि ऐसा किया जाना मुस्लिम धर्मग्रन्थ द्वारा निर्धारित कानून के विरुद्ध होगा। उन्होंने इस विधेयक का हर चरण पर विरोध ही नहीं किया, बल्कि जब यह कानून बन गया तो उसके खिलाफ सविनय अवज्ञाअभियान भी छेड़ा। सौभाग्य से उक्त अधिनियम के विरुद्ध मुसलमानों द्वारा छोड़ा गया वह अभ्यिान फेल नहीं हो पाया, और उन्हीं दिनों कांग्रेस द्वारा चलाए गए सविनय अवज्ञा आन्दोलन में समा गया। परन्तु उस अभियान से यह तो सिद्ध हो ही जाता है कि मुसलमान समाज सुधार के कितने प्रबल विरोधी हैं।'' (पृ. २२६)

१०. मुस्लिम राजनीतिज्ञों द्वारा धर्मनिरपेक्षता का विरोध-''मुस्लिम राजनीतिज्ञ जीवन के धर्मनिरपेक्ष पहलुओं को अपनी राजनीति का आधार नहीं मानते, क्योंकि उने लिए इसका अर्थ हिन्दुओं के विरुद्ध अपने संघर्ष में अपने समुदाय को कमजोर करना ही है। गरीब मुसलमान धनियों से इंसाु पाने के लिए गरीब हिन्दुओं के साथ नहीं मिलेंगे। मुस्लिम जोतदार जमींदारों के अन्याय को रोकने के लिए अपनी ही श्रेणी के हिन्दुओं के साथ एकजुट नहीं होंगे। पूंजीवाद के खिलाफ श्रमिक के संघर्ष में मुस्लिम श्रमिक हिन्दू श्रमिकों के साथ शामिल नहीं होंगे। क्यों ? उत्तर बड़ा सरल है। गरीब मुसलमान यह सोचता है कि यदि वह धनी के खिलाफ गरीबों के संघर्ष में शामिल होता है तो उसे एक धनी मुसलमान से भी टकराना पड़ेगा। मुस्लिम जोतदार यह महसूस करते हैं कि यदि वे जमींदारों के खिलाफ अभियान में योगदान करते हैं तो उन्हें एक मुस्लिम जमींदार के खिलाफ भी संघर्ष करना पड़ सकता है। मुसलमान मजदूर यह सोचता है कि यदि वह पूंजीपति के खिलाफ श्रमिक के संघर्ष में सहभागी बना तो वह मुस्लिम मिल-मालिक की भावाओं को आघात पहुंचाएगा। वह इस बारे में सजग हैं कि किसी धनी मुस्लिम, मुस्लिम ज़मींदार अथवा मुस्लिम मिल-मालिक को आघात पहुंचाना मुस्लिम समुदाय को हानि पहुंचाना है और ऐसा करने का तात्पर्य हिन्दू समुदाय के विरुद्ध मुसलमानों के संघर्ष को कमजोर करना ही होगा।'' (पृ. २२९-२३०)

११. मुस्लिम कानूनों के अनुसार भरत हिन्दुओं और मुसलमानों की समान मातृभूमि नहीं हो सकती-''मुस्लिम धर्म के सिद्धान्तों के अनुसार, विश्व दो हिस्सो में विभाजित है-दार-उल-इस्लाम तथा दार-उल-हर्ब। मुस्लिम शासित देश दार-उल-इस्लाम हैं। वह देश जिसमें मुसलमान सिर्फ रहते हैं, न कि उस पर शासन करते हैं, दार-उल-हर्ब है। मुस्लिम धार्मिक कानून का ऐसा होने के कारण भारत हिन्दुओं तथा मुसलमानों दोनों की मातृभूमि नहीं हो सकती है। यह मुसलमानों की धरती हो सकती है-किन्तु यह हिन्दुओं और मुसलमानों की धरती, जिसमें दोनोंसमानता से रहें, नहीं हो सकती। फिर, जब इस पर मुसलमानों का शासन होगा तो यह मुसलमानों की धरती हो सकती है। इस समय यह देश गैर-मुस्लिम सत्ता के प्राधिकार के अन्तर्गत हैं, इसलिए मुसलमानों की धरती नहीं हो सकती। यह देश दार-उल-इस्लाम होने की बजाय दार-उल-हर्ब बन जाताप है। हमें यह नहीं मान लेना चाहिए कि यह दृष्टिकोण केवल शास्त्रीय है। यह सिद्धान्त मुसलमानों को प्रभावित करने में बहुत कारगर कारण हो सकता है।'' (पृ. २९६-२९७)

१२. दार-उल-हर्व भारत को दार-उल-इस्लाम बनाने के लिए जिहाद-''यह उल्लेखनीय है कि जो मुसलमान अपने आपको दार-उल-हर्ब में पाते हैं, उनके बचाव के लिए हिजरत ही उपाय नहीं हैं मुस्लिम धार्मिक कानून की दूसरी आज्ञा जिहाद (धर्म युद्ध) है, जिसके तहत हर मुसलमान शासक का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि इस्लाम के शासन का तब तक विस्तार करता रहे, जब तक सारी दुनिया मुसलमानों के नियंत्रण में नहीं आ जाती। संसार के दो खेमों में बंटने की वजह से सारे देश या दो दार-उल-इस्लाम (इस्लाम का घर) या दार-उल-हर्ब (युद्ध का घर) की श्रेणी में आते हैं। तकनीकी तौर पर हर मुस्लिम शासक का, जो इसके लिए सक्षम है, कर्त्तव्य है कि वह दार-उल-हब्र कोदार-उल-इस्लाम में बदल दे; और भारत में जिस तरह मुसलमानों के हिज़रत का मार्ग अपनाने के उदाहरण हैं, वहाँ ऐसेस भी उदाहरण हैं कि उन्होंने जिहाद की घोषणा करने में संकोच नहीं किया।''

''तथ्य यह है कि भारत, चाहे एक मात्र मुस्लिम शासन के अधीन न हो, दार-उल-हर्ब है, और इस्लामी सिद्धान्तों के अनुसार मुसलमानों द्वारा जिहाद की घोषणा करना न्यायसंगत है। वे जिहाद की घोषणा ही नहीं कर सकते, बल्कि उसकी सफलता के लिए विदेशी मुस्लिम शक्ति की मदद भी ले सकते हैं, और यदि विदेशी मुस्लिम शक्ति जिहाद की घोषणा करना चाहती है तो उसकी सफलता के लिए सहायता दे सकते हैं।'' (पृ. २९७-२९८)

१३. हिन्दू-मुस्लिम एकता असफल क्यों रही ?-''हिन्दू-मुस्लिम एकता की विफलता का मुखय कारण इस अहसास का न होना है कि हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच जो भिन्नताएं हैं, वे मात्र भिन्नताएं ही नहीं हैं, और उनके बीच मनमुटाव की भावना सिर्फ भौतिक कारणों से ही नहीं हैं इस विभिन्नता का स्रोत ऐतिहासिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक दुर्भावना है, और राजनीतिक दुर्भावना तो मात्र प्रतिबिंब है। ये सारी बातें असंतोष का दरिया बना लेती हैं जिसका पोषण उन तमाम बातों से होता है जो बढ़ते-बढ़ते सामान्य धाराओं को आप्लावित करता चला जाता हैं दूसरे स्रोत से पानी की कोई भी धारा, चाहे वह कितनी भी पवित्र क्यों न हो, जब स्वयं उसमें आ मिलती है तो उसका रंग बदलने के बजाय वह स्वयं उस जैसी हो जाती हैं दुर्भावना का यह अवसाद, जो धारा में जमा हो गया हैं, अब बहुत पक्का और गहरा बन गया है। जब तक ये दुर्भावनाएं विद्यमान रहती हैं, तब तक हिन्दू और मुसलमानों के बीच एकता की अपेक्षा करना अस्वाभाविक है।'' (पृ. ३३६)

१४. हिन्दू-मुस्लिम एकता असम्भव कार्य-''हिन्दू-मुस्लिम एकता की निरर्थकता को प्रगट करने के लिए मैं इन शब्दों से और कोई शबदावली नहीं रख सकता। अब तक हिन्दू-मुस्लिम एकता कम-से-कम दिखती तो थी, भले ही वह मृग मरीचिका ही क्यों न हो। आज तो न वह दिखती हे, और न ही मन में है। यहाँ तक कि अब तो गाांी ने भी इसकी आशा छोड़ दी है और शायद अब वह समझने लगे हैं कि यह एक असम्भव कार्य है।'' (पृ. १७८)

१५. साम्प्रदायिक शान्ति के लिए अलपसंखयकों की अदला-बदली ही एक मात्र हल-''यह बात निश्चित है कि साम्प्रदायिक शांति स्थापित करने का टिकाऊ तरीका अल्पसंखयकों की अदला-बदली ही हैं।यदि यही बात है तो फिर वह व्यर्थ होगा कि हिन्दू और मुसलमान संरक्षण के ऐसे उपाय खोजने में लगे रहें जो इतने असुरक्षित पाए गए हैं। यदि यूनान, तुकी और बुल्गारिया जैसे सीमित साधनों वाले छोटे-छोटे देश भी यह काम पूरा कर सके तो यह मानने का कोई कारण नहीं है कि हिन्दुस्तानी ऐसा नहीं कर सकते। फिर यहाँ तो बहुत कम जनता को अदला-बदली करने की आवश्यकता पड़ेगी ओर चूंकि कुछ ही बाधाओं को दूर करना है। इसलिए साम्प्रदायिक शांति स्थापित करने के लिए एक निश्चित उपाय को न अपनाना अत्यन्त उपहासास्पद होगा।'' (पृ. १०१)

१६. विभाजन के बाद भी अल्पसंखयक-बहुसंखयक की समस्या बनी ही रहेगी-''यह बात स्वीकार कर लेनी चाहिए कि पाकिस्तान बनने से हिन्दुस्तान साम्प्रदायिक समस्यासे मुक्त नहीं हो जाएगा। सीमाओं का पुनर्निर्धारण करके पाकिस्तान को तो एक सजातीय देश बनाया जा सकता हे, परन्तु हिन्दुस्तान तो एक मिश्रित देश बना ही रहेगा। मुसलमान समूचे हिन्दुस्तान में छितरे हुए हैं-यद्यपि वे मुखयतः शहरों और कस्बों में केंद्रित हैं। चाहे किसी भी ढंग से सीमांकन की कोशिश की जाए, उसे सजातीय देश नहीं बनायाजा सकता। हिन्दुस्तान को सजातीय देश बनाने काएकमात्र तरीका है, जनसंखया की अदला-बदली की व्यवस्था करना। यह अवश्य विचार कर लेना चाहिए कि जब तक ऐसा नहीं कियाजाएगा, हिन्दुस्तान में बहुसंखयक बनाम अल्पसंखयक की समस्या और हिन्दुस्तान की राजनीति में असंगति पहले की तरह बनी ही रहेगी।'' (पृ. १०३)

१७. अल्पसंखयकों की सुरक्षा के लिए संवैधानिक उपाय-''अब मैं अल्पसंखयकों की उस समस्या की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहता हूँ जो सीमाओं के पुनः निर्धारण के उपरान्त भी पाकिस्तान में बनी रहेंगी। उनके हितों की रक्षा करने के दो तरीके हैं। सबसे पहले, अल्पसंखयकों के राजनीतिक और सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा के लिए संविधान में सुरक्षा उपाय प्रदान करने हैं। भारतीय के लिए यह एक सुपरिचित मामला है और इस बात पर विस्तार से विचार करना आवश्यक है।'' (पृ. ३८५)

१८. अल्पसंखयकों की अदला-बदली-एक संभावित हल-''दूसरा तरीका है पाकिस्तान से हिन्दुस्तान में उनका स्थानान्तरणकरने की स्थिति पैदा करना। अधिकांश जनता इस समाधान को अधिक पसंद करती हे और वह पाकिस्तान की स्वीकृति के लिए तैयार और इच्छुक हो जाएगी, यदि यह प्रदर्शित किया जा से कि जनसंखया का आदान-प्रदान सम्भव है। परन्तु इसे वे होश उड़ा देने वालीऔर दुरूह समस्या समझते हैं। निस्संदेह यह एक आतंकित दिमाग की निशनी है। यदि मामले पर ठंडे और शांतिपूर्ण एंग से विचार किया जाए तो पता लग जाएगा कि यह समस्या न तो होश उड़ाने वाली है, और न दुरूह।'' (पृ. ३८५)
(सभी उद्धरण बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर सम्पूर्ण वाड्‌मय, खंड १५-'पाकिस्तान और भारत के विभाजन, २००० से लिए गए हैं)

Sunday, December 27, 2009

CHRISTMAS..............................?

JESUS WAS BORN ON 25 DECEMBER-------------NO EVIDENCE!
some eastern national churches, including those of Russia, Georgia,Egypt, Armenia, Ukraine, FYROM and Serbia celebrate on January 7.
Throughout the holiday's history, Christmas has been the subject of both controversy and criticism from a wide variety of different sources. The first documented Christmas controversy was Christian-led, and began during the English Interregnum, when England was ruled by a PuritanParliament. Puritans (including those who fled to America) sought to remove the remaining pagan elements of Christmas. During this period, the English Parliament banned the celebration of Christmas entirely, considering it "a popish festival with no biblical justification", and a time of wasteful and immoral behavior.
Controversy and criticism continues in the present-day, where some Christian and non-Christians have claimed that an affront to Christmas (dubbed a "war on Christmas" by some) is ongoing. In the United States there has been a tendency to replace the greeting Merry Christmas with Happy Holidays. Groups such as the American Civil Liberties Union have initiated court cases to bar the display of images and other material referring to Christmas from public property, including schools. Such groups argue that government-funded displays of Christmas imagery and traditions violate the First Amendment to the United States Constitution, which prohibits the establishment by Congress of a national religion. In 1984, the U.S. Supreme Court ruled in Lynch vs. Donnelly that a Christmas display (which included a Nativity scene) owned and displayed by the city of Pawtucket, Rhode Island did not violate the First Amendment. In November 2009, the Federal appeals court in Philadelphia endorsed a school district's ban on the singing of Christmas carols.
In the private sphere also, it has been alleged that any specific mention of the term "Christmas" or its religious aspects was being increasinglycensored, avoided, or discouraged by a number of advertisers and retailers. In response, the American Family Association and other groups have organized boycotts of individual retailers.." In the United Kingdom there have also been some controversies, one of the most famous being the temporary promotion of the Christmas period as Winterval by Birmingham City Council in 1998. There were also protests in November 2009 when the city of Dundee promoted its celebrations as the Winter Night Light festival, initially with no specific Christmas references.
The name Christmas comes from an imaginary character- Father Christmas/Saint Nicholas advertized throughout the world as Santa Claus which again has nothing to do with 25 December.
All the above information has nothing to do with we- Bharatiya people, our history, traditions or culture.
Jesus Christ itself is a dubious character, being born to a virgin--WHO IS JESUS'S FATHER?
How can a man come out of the grave 3 days after his death?
Was He married, had He children too. Refer Dan Brown's The Da Vinci Code.
CHRISTIANITY HAS CALLED US PAGANS AND THEREFORE THE MISSIONARIES HAVE A TARGET TO CONVERT ALL PAGANS (HINDUS) TO CHRISTIANITY.
SADLY CHRISTMAS IS BEING CELEBRATED IN OUR SCHOOLS TODAY, WHERE THE STUDENTS ARE NOT TAUGHT ABOUT OUR OWN CULTURE AND TRADITIONS. THE SCHOOLS RUN BY SANATAN DHARMA, ARYA SAMAJ, JAIN SAMAJ ETC. ARE TOO FOUND CELEBRATING CHRISTMAS WITHOUT KNOWING ITS SIGNIFICANCE AT ALL.
Let's pause, think and try to evaluate the celebration of Christmas. Celebrating Christmas represent nothing but our slave mentality for the English and the west and our Inclination towards a religion- Christianity, which calls us pagans and has not been behind Islam in unleashing violent CRUSADES throughout the world to convert others to Christianity.
Dr. Jai Prakash Gupta. Ambala Cantt.
Mob. 9315510425

Saturday, May 16, 2009

Lok Sabha Results-2009

I think, my optimism over the justification of Indian voter has once again failed or I may say that the majority of Indian voter who votes (The tragedy being that only 50% of the eligible voters poll their votes), has barred his thought process to only 3 things.1. His traditional voting pattern, 2. The fulfillment of his selfish motives and 3. The monetary benefits.
The Kandahar episode had opened the unfortunate facts about the mentality of the people in general who did not press the day's government not to succumb to the hijackers demands, Instead they forced the Government to take that Unfortunate decision of release of the dreaded terrorists.
The media which waged an unnecessary war against Pakistan after Mumbai (26-11) terrorist attacks, made an anti national contribution by forcing the NDA Government take the most unfortunate decision of the release of terrorists.
It seems, the congress with all its anti national and anti hindu mind understands the mind of the voter better than anyone else. Their strategy being- Loot, Divide the general voter and create confusion. Pour money wherever en-masse votes are expected. Keep the blind flock solidly behind congress reminding the contribution of the congress in the Independence struggle. Strengthen vote banks by raising the reservations to more flocks, Keep the issue of communalism- Secularism alive without explaining the real meaning of these words. Strengthen the Non Hindu religious groups by showing them the fear of Hindus even at the cost of national security. The results of the elections are a clear indication that the voters are not concerned with the Sustained Price rise of essential commodities, spread of the terror networks throughout the length and breadth of the country, scarcity of essential commodities, deteriorating security concerns in the neighboring countries, failing economy, exports, manufacturing sector, agricultural production. The voter also seems to be unconcerned about the insult of the Institutions, autocratic use of the premier institutions.
Considering the tally that has given the congress a comfortable boost means that the voter voted for either the raised pay packet, that may be understood. But what about others?
The people of this country should not blame the politicians or the Government for Terrorism- Inflation- corruption etc., etc. They are themselves to be blamed for this. They have chosen these virtues.
I was elated over the people's contribution on national issues on the internet. The contributors on blogs, communities, social networking sites were decisively campaigning nationalism in a big way. Yet, probably we could not end up with the votes. May be, many on the internet did not cast their own votes!
I am not only worried that BJP has lost or we could not have Shri Lal Krishna Advani ji as the Prime Minister, I am depressed because the nation has lost an opportunity to have a brilliant Prime Minister and a nationalist government.
Moreover, the seats that the congress is getting make me worried about the future trend of their divisive politics that could disintegrate this society further.
Is there any remedy in sight?
Yes1 there may be, but we shall have to work very hard. Let's resolve to work very hard these next 5 years to go to the people and convince them of the realities. Let's go to the colleges, universities and chat with the students. Let "Secularism" be the issue of debate throughout the country. Let's leace the freebies to the politicians and spread the nationalist thought throughout the length and breadth of the country.
BJP shall have to make groups of individuals for this daunting task, without which the nation is bound to suffer at the merciless hands of the secularists.
Dr. Jai Prakash Gupta. Ambala.
+91-9315510425

Thursday, April 16, 2009

Saviours of English

Macaulay, while introduced English medium education policy in India, he has a vision to make the Indian people blind about their own languages and culture along with history, so that India remains slave of the English for centuries to come. His vision and subsequent actions of the British of the introduction of the education policy has paid rich dividends. The educated elite of this country which calls itself an independent sovereign state have become the saviours of the language of our former Masters, who looted us of our wealth for centuries together.
The issue of English as a language of Indians has once again cropped up, thanks to its opposition in the election manifesto of a Secular ( Samajvadi Party), led by a leader of the most important political state of India- Uttar Pradesh, Mr. Mulayam Singh Yadav.
As expected, it has been largely opposed by the mainline English loving media. The criticism of the language issue makes one feel as if India thrives on English language alone & without English, we stand nowhere. It is also emphasized time and again that English is a world language and it is the language of progress and prosperity. Some have even said that by opposing English, we shall go to Stone Age.
History tells us that the English robbed us of our language, history, culture, traditions and Physical wealth.
Making a moving reference to the use of computers, which is also attached in this controversy, due to the party’s reference to it, we are again been told that in computer age we can’t move without English. It is also being reminded to us that India has gained reputation because of the English knowing IT professionals. Yes, no doubt our IT engineers have relentlessly worked for the Microsoft and other multinational IT giants and developed various programmes and software for them. Yet let us look at the situation of the national language of India- Hindi or other Indian languages vis-à-vis Computer word. Let’s quickly look at the languages supported by the Microsoft, whose windows are in use in India along with rest of the world. Here is a list for the ready reference via http://support.microsoft.com/kb/292246
Windows XP / 2003 languages

1. Afrikaans,
2. Albanian
3. Azeri(Cyrillic)
4. Azeri(Latin)
5. Basque
6. Belarusian
7. Bulgarian
8. Catalan
9. Croatian
10. Czech
11. Danish
12. Dutch (Belgium)
13. Dutch(Netherlands)
14. English (Australia)
15. English (Belize)
16. English (Canada)
17. English (Caribbean)
18. English (Ireland)
19. English (Jamaica)
20. English (New Zealand)
21. English (Philippines)
22. English (South Africa)
23. English (Trinidad)
24. English (United Kingdom)
25. English (United States)
26. English (Zimbabwe)
27. Estonian
28. Faeroese
29. Finnish
30. French (Belgium)
31. French (Canada)
32. French (France)
33. France (Luxembourg)
34. French (Monaco)
35. French (Switzerland)
36. Galician
37. German (Austria)
38. German (Germany)
39. German (Liechtenstein)
40. German (Luxembourg)
41. German (Switzerland)
42. Greek
43. Hungarian
44. Icelandic
45. Indonesian
46. Italian (Italy)
47. Italian (Switzerland)
48. Japanese
49. Latvian
50. Lithuanian
51. Macedonian (FYROM)
52. Malay(Brunei Darussalam)
53. Malay (Malaysia)
54. Mongolian (Cyrillic)
55. Norwegian (Bokmal)
56. Norwegian (Nynorsk)
57. Polish
58. Portuguese (Brazil)
59. Portuguese (Portugal)
60. Romanian
61. Russian
62. Serbian (Cyrillic)
63. Serbian (Latin)
64. Slovak
65. Slovenian
66. Spanish (Bolivia)
67. Spanish (Chile)
68. Spanish (Colombia)
69. Spanish (Costa Rica)
70. Spanish (Dominican Republic)
71. Spanish (Ecuador)
72. Spanish (El Salvador)
73. Spanish (Guatemala)
74. Spanish (Honduras)
75. Spanish (International Sort)
76. Spanish (Mexico)
77. Spanish (Nicaragua)
78. Spanish (Panama)
79. Spanish (Paraguay)
80. Spanish (Peru)
81. Spanish (Puerto Rico)
82. Spanish (Traditional Sort)
83. Spanish (Uruguay)
84. Spanish (Venezuela)
85. Swahili
86. Swedish
87. Swedish (Finland)
88. Tatar
89. Turkish
90. Ukrainian
91. Uzbek(Cyrillic)
92. Uzbek (Latin

With 92 languages on board, we can imagine the failure of Indian governments and IT professionals for not pursuing the cause of Indian national language in Microsoft. But then, we can understand this dilemma with its roots in the understanding of Indian nation. The greatest congress leader had commented that we are in the process of making of nation. The same Pandit Javahar Lal prevented India to have its national language as Hindi. Since then every attempt has been made to promote the English language at the cost of our national language Hindi. The high profile English media has throughout supported this anti national cause of Nehru Gandhi dynasty.
While, this has been the state of affairs, the furious reaction of the media against the opposition of English by a political group can be well understood.
While I am not supportive of the posture placed in the SP election manifesto against the English language and computers, I am convinced that there is a serious flaw in our attitude towards our national language- Hindi vis-à-vis English and we need its immediate solution in favour of Hindi as the first language. With the decline of our interest in Hindi and Sanskrit, we should be ready to lose our national identity. There shall be no BHARAT and whatever India remains shall not identify itself with the proud culture roots that BHARAT possesses.


Dr. Jai Prakash Gupta. Ambala Cantt.
+91-9315510425

Sunday, April 5, 2009

धर्मनिरपेक्षता और भारतीय राजनीति

भारतीय समाज यों तो अनेक प्रकार से विभाजित है यथा जाति- पन्थ- वर्ग- समुदाय- भाषा आदि आदि, किन्तु एक आयातित शब्द व विचारधारा SECULARISM ने भारतीय राजनीति को जिस प्रमाण में प्रभावित किया है, सम्भवत: किसी अन्य ने नहीं किया। भारतीय राजनीति के दो मुख्य ध्रुव हैं- एक हैं SECULAR व दूसरे COMMUNAL. यद्यपि यह दोनों शब्द मूलत: विदेशी हैं व विचार भी विदेशी किन्तु अपने प्रगतिशील राजनेताओं व बुद्धिजीवियों के लिये ये ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। यहां यह स्पष्ट कर देना उत्तम होगा कि SECULARISM नामक विचारधारा पश्चिमी राज्यों में CHURCH द्वारा किए गए अमानवीय अत्याचारों व शासन में अनुचित हस्तक्षेप के कारण उस समाज में उस अत्याचार से बचाव के अस्त्र के रूप में जन्मी व विकसित हुई तथा उन्हीं सभ्यताओं में समाज के विभिन्न वर्गों को COMMUNES नाम से जानने के कारण तथा विभिन्न COMMUNES में हिंसक संघर्षों की विद्यमानता से COMMUNAL शब्द अस्तित्व में आया। भारत में ऐसी स्थिति कभी नहीं थी। न तो यहां RELIGION व COMMUNE जैसे शब्द थे तथा न ही विचार। धर्म नाम से जिस विचार का प्रतिपादन भारतीय परम्परा में किया गया उसका RELIGION, सम्प्रदाय, मत, पन्थ अथवा मजहब से कोई सम्बन्ध नहीं है, किन्तु तो भी पराधीन भारतीय मानस ने धर्म को RELIGION का पर्याय स्वीकार कर यह विनाशकारी खेल भारत की राजनैतिक स्वाधीनता से पूर्व ही प्रारम्भ कर दिया गया था। इसी स्वीकारोक्ति ने १९४७ में भारत का विभाजन कराया तथा यही विचारधारा आज पुन: भारतमाता के रूप में राष्ट्रीय स्वाभिमान को प्रतिष्ठित करने का स्वप्न देखने वालों के लिए सबसे भयंकर चुनौती बनी हुई है। धर्मनिरपेक्षता नाम से SECULARISM शब्द का अनुवाद करने वालों को साधुवाद, क्योंकि वास्तव में भारत में यही इसका व्यवहारिक अर्थ है।
SECULARISM में अंग्रेजी व उर्दू स्वीकार्य हैं हिन्दी नहीं।
SECULARISM में स्वयं को हिन्दु से पृथक कहने वाले उत्तम हैं, हिन्दु निकृष्ट।
SECULARISM में भारत कभी एक राष्ट्र था ही नहीं अंग्रेजों व कांग्रेस ने यह राष्ट्र बनाया अत: इस राष्ट्र के पति (HUSBAND अथवा स्वामी) कांग्रेस के सबसे बड़े नेता म. गांधी हैं व इस देश की राष्ट्रभाषा अंग्रेजी।
SECULARISM का अर्थ है कि राम एक मिथ्या पात्र हैं तथा इसी प्रकार अपने वेद- पुराण- रामायण- महाभारत आदि सभी काल्पनिक व मिथ्या हैं, जबकि क़ुरान व BIBLE पवित्र ग्रन्थ हैं। अत: हिन्दु को ईसाई अथवा मुसलमान बनाना पवित्र कृत्य हैं व प्रोत्साहन योग्य।
SECULARISM आयुर्वेद, योग, ज्योतिष, तन्त्र, दर्शन आदि को त्याज्य मानता है।
SECULARISM वन्देमातरम को, रामजन्मस्थान- अयोध्या, व प्रत्येक हिन्दु विचार को त्याज्य व हेय मानता है।
SECULARISM की गौरवशाली गाथाओं से भारत के इतिहास के असंख्य पृष्ठ भरे पड़े हैं। आज इन पर दृष्टिपात करने का अवसर है।
आइये अपने निजी स्वार्थों की तिलाजलि दे इस लोकसभा चुनाव में SECULARISM के इस भयंकर राक्षस का वध करके अपने राष्ट्र की अस्मिता को अक्षुण्ण बनाएं।
डॉ. जय प्रकाश गुप्त, अम्बाला छावनी।
+९१-९३१५५१०४२५